एक माह से अधिक समय से जंतर-मंतर पर पहलवानों का धरना चल रहा है। बीते अनुभव यही बता रहे हैं कि मोदी सरकार में कोई भी धरना-प्रदर्शन लंबा ही चलता है, क्योंकि इंसाफ की मांग करने वालों का चीखते-चीखते गला सूख जाता है, मगर सरकार के कानों तक आवाज पहुंचती ही नहीं है। शाहीन बाग का आंदोलन, किसानों का आंदोलन, या मोदी सरकार के गठन के फौरन बाद 2015 में हुआ एफटीआईआई के छात्रों का आंदोलन हो, सब लंबे खिंचे क्योंकि संवाद का अभाव था। इसलिए पहलवानों का आंदोलन कितना लंबा खिंचेगा, कहा नहीं जा सकता।
कितनी हैरानी की बात है कि देश के नामी-गिरामी पहलवान यौन शोषण के गंभीर आरोप लगा रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही। दिल्ली पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की है, जिसमें पॉक्सो के तहत भी मामला दर्ज हुआ है। लेकिन आरोपी पर कोई कानूनी कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। बल्कि बृजभूषण शरण सिंह 5 जून को अयोध्या में जन चेतना महारैली का आयोजन करने जा रहे हैं। रैली का असल उद्देश्य क्या है, यह पता नहीं। लेकिन माना जा रहा है कि इस आयोजन के बहाने भाजपा सांसद हिंदू धार्मिक नेताओं की मदद से लोगों को अपने पक्ष में लामबंद करना चाहते हैं, ताकि सरकार उन पर कार्रवाई करने से बचे। बृजभूषण शरण सिंह के राजनैतिक महत्व को भाजपा जानती है, शायद इसलिए कोई कड़ा कदम अब तक नहीं उठाया गया है। भाजपा सांसद अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज करते आए हैं और 19 मई को उन्होंने फिर कहा कि सारा मामला गुड टच और बैड टच का है। कोई भी ये बताए कि कहां हुआ, किसके साथ हुआ, अगर एक भी मामला साबित हुआ तो मैं फांसी पर लटक जाऊंगा।
सांसद को यह पता होना चाहिए कि मामला साबित होने का सही स्थान तो अदालत है, लेकिन वहां तक तो बृजभूषण शरण सिंह तभी पहुंचेंगे, जब वे खुद जाएंगे या उन्हें वहां तक आने के लिए बाध्य किया जाएगा। फिर सजा होनी है या नहीं, यह तय करना भी माननीय न्यायाधीशों का कार्य है। देश में न्याय अगर किसी सांसद के शक्ति प्रदर्शन से या पंचायतों से होने लगे तो फिर कानून व्यवस्था किस दुर्दशा को प्राप्त होंगे, ये कल्पना ही कठिन है। महिला पहलवानों के हक में खाप पंचायतों ने सरकार को चेतावनी दी है कि इस निष्क्रियता का परिणाम अच्छा नहीं होगा। मुमकिन है राजस्थान चुनाव और अगले साल होने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार कोई कदम उठा ले। लेकिन इसमें इंसाफ की जगह राजनैतिक स्वार्थ की भावना हावी रहेगी। सरकार अगर जनवरी से ही इस बारे में कोई पहल करती तो माना जा सकता था कि उसका इरादा इंसाफ करने का है, अब तो हर कदम भरपाई ही लगेगा, बशर्ते कोई कदम सरकार उठाए।
महिला पहलवानों के लिए तो खाप पंचायतें आगे आ गईं, लेकिन लगभग हर क्षेत्र में इसी तरह महिलाएं शोषण का शिकार होती हैं। अभी तारक मेहता का उल्टा चश्मा शो की कुछ महिला कलाकारों ने शो के निर्माताओं पर मानसिक शोषण के गंभीर आरोप लगाए हैं। एक कलाकार ने कहा कि शो का सेट पुरुषवादी है, यहां पुरुष कलाकारों को अधिक पारिश्रमिक मिलता है, वे अपना काम करके जल्दी भी जा सकते हैं, लेकिन महिला कलाकारों को इंतजार कराया जाता है। ग्लैमर की दुनिया से लेकर अखाड़े तक महिलाओं की व्यथा एक जैसी ही है।
कार्यस्थलों पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए विधान को अस्तित्व में आए 10 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। तब बलात्कार की परिभाषा व्यापक बनाने के लिए आपराधिक विधानों में भी पहली बार संशोधन किए गए थे और दंड से जुड़े प्रावधान सख्त बना दिए गए थे। हालांकि, इन सख्त प्रावधानों के बावजूद नई दिल्ली के जंतर मंतर पर महिला कुश्ती खिलाड़ियों के पिछले एक माह से अधिक समय से चल रहे धरना-प्रदर्शन को भारत सहित पूरी दुनिया मूक दर्शक बनकर देख रही है। ये खिलाड़ी भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रमुख के हाथों कथित रूप से यौन उत्पीड़न की शिकार बनी खिलाड़ियों के लिए न्याय की मांग कर रही हैं।
इनके विरोध प्रदर्शन पर सरकार की प्रतिक्रिया अब तक निराश करने वाली रही है। केंद्र में सत्ताधारी दल स्वयं को कन्या एवं महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकार को बढ़ावा देने का प्रणेता होने का दावा करती रही है। इसी पार्टी की गोवा में सरकार ने तहलका पत्रिका के संस्थापक तरुण तेजपाल के खिलाफ 10 वर्ष पूर्व यौन उत्पीड़न का एक मामला भी दर्ज किया था। जिस महिला ने यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी वह तेजपाल की सहकर्मी थी।
मगर इस मामले में संदिग्ध उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी दल के एक नेता के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है। करीब चार महीने पहले उनके खिलाफ सार्वजनिक तौर पर शिकायत दर्ज कराई गई थी मगर वह अभी भी राज्य के कैसरगंज संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं। वह स्वयं को निर्दोष बताते हैं और अगर कोई उनसे इस बारे में प्रश्न करता है तो वह शिकायतकर्ता की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं।
महिला खिलाड़ियों ने अपने संघ के प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जो आरोप लगाए गए हैं उनमें सत्यता हो भी सकती है और नहीं भी। मगर उनमें इतनी नैतिकता तो होनी चाहिए कि अपने खिलाफ लगे आरोपों की जांच पूरी होने तक वह स्वयं ही संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दें। आखिरकार, संसद का सदस्य होना एक गरिमा और लोगों के विश्वास का विषय है। सिंह भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद से भी इस्तीफा देने को तैयार नहीं थे मगर जब खेल मंत्री ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा तो उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा।
इस बीच, सरकार द्वारा नियुक्त निगरानी समिति की रिपोर्ट पिछले महीने सौंपी दी गई। इस समिति के ज्यादातर सदस्यों में खेल की दुनिया के लोग शामिल हैं और ओलिंपिक में पदक विजेता मैरी कॉम इसकी अध्यक्षता कर रही हैं। इस समिति ने सिंह को दोषी पाया है या नहीं इस बारे में आधिकारिक रूप में कुछ नहीं कहा गया है।
मगर अफसोस की बात है कि सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और वह सार्वजनिक तौर पर कोई प्रतिक्रिया देने से बच रही है। पुलिस की छवि ऐसी बन गई है कि शायद ही कोई यह मानता है कि वह महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने को लेकर गंभीर रहती है।
भारत स्वयं को एक उभरती शक्ति के रूप में पेश कर रहा है और इस वर्ष दुनिया की 20 सर्वाधिक प्रगतिशील अर्थव्यवस्थाओं की अध्यक्षता कर रहा है, ऐसे समय में जंतर मंतर पर जो कुछ हो रहा है वह इसकी छवि के लिए ठीक नहीं है।
इससे कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में सरकार जाने-अनजाने में गलत संदेश भेज रही है। सत्ताधारी पार्टी के नेता दुनिया में सफल महिला एथलीट की बढ़ती संख्या पर उत्साह दिखा रही है मगर आश्चर्य की बात है कि जितने खेल महासंघ हैं उनमें केवल आधे में ही यौन उत्पीड़न के लिए आंतरिक शिकायत समिति का प्रावधान है।
कानूनन 10 से अधिक कर्मचारियों वाले किसी संगठन में एक आंतरिक शिकायत समिति गठित किया जाना अनिवार्य है। दुख की बात है कि खेल मंत्रालय ने यह प्रावधान लागू कराने पर सक्रियता नहीं दिखाई है और सभी खेल संघों को ऐसी समिति के गठन का निर्देश नहीं दिया है।
यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून तो सख्त होते जा रहे हैं लेकिन इन कानूनों को लागू करने के लिए होने वाले प्रयास बिल्कुल विपरीत दिशा में जा रहे हैं। उदाहरण के लिए 2018 में कई आपराधिक कानूनों में बलात्कार के लिए दंड का प्रावधान बढ़ा दिया गया है और बलात्कारियों के लिए न्यायालय से जमानत लेना भी अब मुश्किल हो गया है।
उसी साल कंपनी मामलों के मंत्रालय ने कंपनियों के लिए निदेशक मंडल की रिपोर्ट में वह स्वीकरण शामिल करना अनिवार्य कर दिया गया है कि उन्होंने यौन उत्पीड़न रोकथाम से संबंधित कानून का अनुपालन किया है। अगर कोई कंपनी इन शर्तों का पालन नहीं करती है उनके खिलाफ भारी-भरकम जुर्माना लगाया जा सकता है।
इससे इतना तो सुनिश्चित हो पाता है कि कंपनियां कम से कम कागजों पर कानूनों का उल्लंघन नहीं कर रही हैं। मगर सत्ताधारी पार्टी जिस तरह यौन उत्पीड़न के आरोप में घिरे शक्तिशाली व्यक्ति को बचाती हुई प्रतीत हो रही है उससे तो यही लगता है कि कंपनियां भी अगर नियमों में कोई ढिलाई बरतती हैं तो उनके खिलाफ कदाचित ही कोई बड़ी कार्रवाई की जाएगी।
इससे एक संदेश यह भी जा रहा है कि अगर कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत करती भी है तो उसे शायद ही कोई गंभीरता से लेगा। यह एक ऐसी समस्या जिससे हम सभी अवगत है।
पश्चिमी देशों में यौन उत्पीड़न या किसी अन्य शिकायत पर शिकायतकर्ता की बात को स्वाभाविक रूप में गंभीरता से लिया जाता है मगर भारत में ऐसी शिकायतों पर सुनवाई करने से पहले तमाम तकनीकी पहलुओं जैसे शिकायतकर्ता की मंशा आदि पर समय जाया किया जाता है। यह बड़े दुख की बात है कि जिन महिलाओं ने वैश्विक स्तर पर खेल के मैदान में भारत को गौरवान्वित किया है उनकी बात को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है।
अगर इन महिलाओं के साथ ऐसा बरताव हो सकता है तो अन्य संगठनों में काम करने वाली महिलाओं के साथ क्या होगा इस बात की कल्पना आसानी से की जा सकता है। खासकर, सरकार के सुस्त रवैये को देखते हुए तो ‘बेटी बचाओ’ का नारा एक मजाक लगने लगा है।