-डॉ. रवीन्द्र अरजरिया-
चुनावों के आइने में भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा निर्वाचन के पहले ही अपनी तस्वीर नजर आ गई। केन्द्र की सरकार के चन्द चेहरों की दम को भी स्थानीय राजनीति ने बेदम कर दिया। कर्नाटक के अप्रत्याशित परिणामों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के नगर निकाय के रुख ने साफ कर दिया है कि स्थानीय लोकप्रियता का मापदण्ड मतदाताओं के रुझान से लिया जाना चाहिए, न कि शिफारिशों की दम पर। भाजपा के अनेक कद्दावर नेताओं ने आयातित प्रत्याशियों को ज्यादा महात्व दिया। बीएल येदियुरप्पा के स्थान पर बसवराज बोम्मई को लाना भी उलटा दांव पडा। येदियुरप्पा ने ही कर्नाटक में पार्टी की जडें मजबूत की थी और उन्हें ही किनारे कर दिया गया। दूसरी ओर बोम्मई की नीतियां राज्य के मतदाताओं को रास नहीं आई तिस पर थोपे गये प्रत्याशियों की लम्बी सूची ने धरातल ही कमजोर कर दिया। पूर्व उप मुख्यमंत्री सीएम लक्ष्मण सावदी तथा पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार का तो टिकिट तक काट दिया गया। यह तीनों ही लिंगायत समुदाय के भारी नेताओं के रूप में गिने जाते हैं।
आखिरकार उन्हें अपने राजनैतिक जीवन को बचाने हेतु मजबूरी मे कांग्रेस का दाम थामना पडा। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर चलने वाले विपक्ष व्दारा समय-समय पर सरकार के विरुध्द घातक दांव चले जाते रहे। एस ईश्वरप्पा को तो इसी कारण मंत्री पद से ही त्यागपत्र देना पडा था। एक अन्य विधायक को जेल तक जाना पडा। यद्यपि बजरंग दल वाला पैतरा आजमाकर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कोशिश की गई परन्तु शनीवार के दिन ही बजरंगबली नाराज हो गये क्यों कि सिंदूरी रंग में रंगी उनकी काया पर भ्रष्टाचार की कालिख पोतने वालों ने ही पार्टी के अन्दर अपना कद बढाने के लिए भक्ति का ढोंग जो करना शुरू कर दिया था। ऐसे में केन्द्र के पांच साधकों का तिलिस्म अनगिनत छद्मवेशधारियों के प्रभाव पर नस्तनाबूत हो गया। दिल्ली दरबार में बैठकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण, विदेशमंत्री डा. सुब्रह्मण्यम जयशंकर तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने विगत वर्षों में जी तोड मेहनत करके देश को विश्व मंच पर जो सम्मान दिलाया है उसे व्यापार, व्यवसाय और व्यक्तिगत हितों पर निछावर होने वाले अनगिनत अवसरवादी नेताओं ने नस्तनाबूत कर दिया।
भगवा की आड में दागी, अहंकारी और लालची लोगों की जमात पार्टी कार्यालयों में बैठक राज्य के दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के साथ-साथ लिंगायत समुदाय की निरंतर उपेक्षा करते रहे। परिणाम सामने आया। यही हाल उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में भी देखने को मिला। अनेक स्थानों पर संगठन के सुझाये गये प्रत्याशी को हाशिये पर छोडकर स्थानीय भाजपा विधायक के पसन्दीदा प्रत्याशी को उसके क्षेत्र में टिकिट दिया गया। प्रतियुत्तर में कमल मुरझा गया। स्थानीय चुनावों में थोपे गये प्रत्याशियों की हार तो पहले दिन से ही घोषित हो चुकी थी। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ने उत्तर प्रदेश में ज्यादा अच्छे परिणामों की संभावना को केवल अच्छा कहने लायक ही छोडा है। मुख्ममंत्री आदित्यनाथ योगी तथा उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक के दौरे भी थोपे गये प्रत्याशियों को विजयश्री नहीं दिया पाये। गली-मुहल्लों की समस्याओं के लिए स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय, सरल और पारदर्शी नेतृत्व की आवश्यकता होती है। यह छोटी सी बात भारतीय जनता पार्टी जैसी बडी पार्टी के कर्ताधर्ता नहीं समझते होंगे, यह सम्भव नहीं है। यह सत्य है कि योगी का बुलडोजर माडल पूरी दुनिया में पांव पसार चुका है परन्तु स्थानीय स्तर पर जहर बमन करने वाले उनके चापलूस नेताओं ने उन्हीं की पार्टी को समाप्त करने के लिए जयचन्द की भूमिका स्वीकार ली है।
दल-बदल के इतिहासपुरुषों को गले लगाने के बाद भाजपा के कट्टर समर्थकों का छिटकना स्वाभाविक ही है। उत्तर प्रदेश की सीमा से गलबहिंया करने वाले मध्य प्रदेश के हालत तो और भी बदतर होते जा रहे हैं। वहां के मुख्यमंत्री शिवराज मामा को अपनी भांजियों, भांजों, बहिनों तथा बहनोइयों के भी वोट मिलना मुश्किल लग रहे हैं। सरकारी खजाने को लुटाने में माहिर शिवराज मामा ने कुछ ही दिन पहले भारी भरकम विज्ञापनों के माध्यम से अपने पशुप्रेम को दर्शाने की कोशिश की थी। वाहन निर्माता कम्पनियों को लाभ देने हेतु विगत 12 मई को प्रदेश मुख्यालय पर गौ रक्षा सम्मेलन का आयोजन करके 406 चलित पशु चिकित्सा इकाइयों का लोकार्पण किया गया। गौवंश संरक्षण एवं संवर्धन के प्रयासों का ढिंढोरा पीटा गया। वाहनों की खरीदी से लेकर उसे उपकरणों से सुसज्जित करने पर पैसा पानी की तरह बहाया गया। जबकि प्रदेश में अन्य योजनाओं के लिए खरीदे गये हजारों वाहन खडे-खडे ही जंग से जंग लड रहे हैं। अनेक सर्वेक्षणों में गौ वंश दुर्दशा के लिए मध्य प्रदेश को देश का तीसरा बडा राज्य घोषित किया जा चुका है। सडकों पर पशुओं का डेरा और कागज-पन्नी चबाती मूक काया को सहज ही देखा जा सकता है। इसी राज्य में सिन्धिया गुट तथा शिवराज गुट के अनेक सिपाहसालरों में वर्चस्व की जंग खुले आम चल रही है जो कि किसी भी स्थिति में पार्टी के लिए सुखद नहीं कही जा सकती।
वहीं देवभूमि उत्तराखण्ड में भी श्रध्दालुओं की परेशानियों नित नये कीर्तिमान बना रहीं हैं। विभिन्न राज्यों से आने वाले तीर्थयात्रियों, साधु-संतों और सेवाभाव से सुविधायें देने को उत्सुक संस्थाओं पर भ्रष्टाचारी अधिकारियों के चाबुक खुलेआम पड रहे हैं। रही सही कसर देवभूमि में पांव पसार चुके आयातित पर्यटन माफियों की मनमानियों ने पूरी कर दी है। यात्रा पर आने वाले लोग अपने कटुअनुभवों के साथ वापिस अपने राज्यों में जाकर यहां की भाजपा सरकार में चल रही लूट खसोट की कहानियां सुनाते हैं। स्थानीय निवासी भी प्रशासनिक तंत्र की छांव में पल रहे आयातित माफियों के जुल्मों से निरंतर कराह रहे हैं। पैसों की चमक से अंधे हो चुके जिम्मेदार अधिकारियों पर सरकार की पकड लगभग समाप्त सी हो गई है। ऐसे में भाजपा के गढों में उनकी हार के लिए किसी दूसरे को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता। वास्तविकता तो यह है कि भाजपा स्वयं के अनियंत्रित हो चुके नेताओं की निजी कूटनीतियों के कारण ही पतन के मुहाने पर पहुंच रही है। पार्टी के अन्दर ही अनेक कद्दावर नेता अब अतीक बनते जा रहे हैं, मुख्तार बनते जा रहे है और बनते जा रहे हैं राजा-महाराज। केन्द्र के पांच सितारों की दम पर निजी स्वार्थ साधने वाले चाटुकारों को जब तक सार्वजनिक रूप से अस्तित्वहीन नहीं किया जायेगा तब तक पार्टी की जडों में मट्ठा पिलाने वाले अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेंगे और न ही अन्य कार्यकर्ताओं को सीख ही मिलेगी। पांच सितारों की दम पर स्वार्थ के ठहाके लगाने वालों को करना होगा चिन्हित तभी पार्टी को अपने पुरातन स्वरूप की प्राप्ति हो सकेगी। इसके लिए खुले मंच पर आम मतदातों के साथ करना होगा संवाद, ईमानदारों और चाटुकारों में करना होगा भेद और प्रमाणित करना होगी अपनी खोई हुई पारदर्शिता। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।