ज्ञान बांटने से बढ़ता है। यदि इसे आप अपने तक ही सीमित रखेंगे तो यह खत्म हो जाएगा। अब कैसे इस ज्ञान को फैलाना है, इसके लिए निपुणता की आवश्यकता है। कई लोग ऐसे हैं, जिनके जीवन में मन की गहराई और सच्चाई (लगन) का नाम नहीं। लोगों को इस तथ्य से अवगत कराना आप पर निर्भर है। – महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी महेशानंद गिरी जी महाराज
विश्व के अग्रणी संतों में ख्याति प्राप्त महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी महेशानंद गिरी जी महाराज ( Mahamandleshwar Shri Shri 1008 swami Maheshanand Giri Ji Maharaj ) ना सिर्फ धर्माधिकारी, मुखर प्रावाचक, अखिल भारतीय सनातन परिषद एवं पंचायती अखाड़ा श्री निरंजनी के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता, नव चंडी सेवा आश्रम सहस्त्रधारा देहरादून उत्तराखंड देवभूमि के अधिपति और सत्य सनातन के ज्योति स्तंभ के रूप में विख्यात हैं साथ ही महाराज जी भारत भर में चलाए जा रहे एक महा अभियान के लिए भी जाने जाते हैं। यह अभियान है भारत भूमि से भयावह चर्म रोग सोरायसिस, सफेद दाग, शरीर पर हुई किसी भी प्रकार की चर्म अनियमितता को जड़ से मिटाना। महाराज जी ने चर्म रोगों से मुक्त भारत का जो दिव्य संकल्प लिया है उसमे नव चंडी आश्रम में उनके साथ वरिष्ठ चिकित्सक एवं वैद्यराज का पूरा दल इन लाइलाज माने जाने वाले रोगों पर शोध करने के साथ साथ दुर्लभ साधनाओं से सिद्ध किए गए गुप्त धनवंतरी मंत्रों से, समय काल दर्शन ऋतुपक्ष के सूत्रों के प्राचीन तंत्र से सभी औषधियों को तैयार और अभिमंत्रित करते हैं। यह महाराज जी की अनंत कृपा ही है जो ऐसी दुर्लभ औषधियां जनमानस में पूर्णतः निशुल्क वितरित की जाती है। सभी शिविर पूर्णतः निशुल्क हैं। विगत अनेक वर्षों में लाखों की संख्या में चर्म रोगी पीड़ित महाराज जी के चिकित्सा कैंप द्वारा बिल्कुल स्वस्थ हो चुके हैं।
सत्संग का विधान
इसीलिए सत्संग का विधान है। सत्संग मतलब सत्य का साथ। आम आदमी के लिए सब कुछ सीखना संभव नहीं। मगर आप ऐसा कुछ सीख सकते हैं जिससे आप सब कुछ जान सकते हैं। ज्यादातर लोग सोचते हैं कि संतोष की अनुभूति एक तरह की चरम सीमा है, जहां से आगे आप कुछ और अनुभव नहीं कर पाते। लेकिन संतोष से यह मतलब नहीं है कि सब कुछ मिल गया। बस अब चुपचाप बैठ जाओ। मैं कहता हूं कि अपना काम करते वक्त पूरी तरह उसमें लीन रहो। यह एक तरह का संतोष है, जिसमें उत्साह है, शक्ति है। यहीं पर सच्चा सुख है। इसी को कर्मयोग कहते हैं।
आपको पता है कि आप कोई भी कार्य कर्मयोगी या अकर्मयोगी बनकर कर सकते हैं। मान लीजिए आप कोई स्कूल शिक्षक हैं। आप जब हर रोज स्कूल जाते हैं तो यह सोचकर जाते हैं कि आज विद्यार्थियों के लिए कौन सा पाठ तैयार करेंगे। या आप पढ़ाई को ज्यादा रसपूर्ण, ज्यादा आनंददायी कैसे बनाएं!
कर्मयोगी की सोच
यह एक कर्मयोगी शिक्षक की सोच है। इसके ठीक विपरीत अकर्मयोगी शिक्षक सोचता है कि वह कब अपनी पढ़ाई खत्म करे। उसकी पढ़ाई घंटी बजने से पहले ही खत्म हो जाती है। अकर्मयोगी शिक्षक का पूरा ध्यान ज्यादातर समय महीने के आखिर में मिलने वाले अपने वेतन पर ही लगा रहता है। और किसी बात से उसे मतलब नहीं होता। इसी तरह आप कर्म या अकर्मयोगी गृहिणी हो सकती हैं। कर्मयोगी पत्नी घर के सदस्यों और घर की छोटी-छोटी चीजों का ध्यान रखती है और अकर्मयोगी पत्नी घर की किसी बात से ज्यादा मतलब नहीं रखती कि घर में क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है। इस तरह हम जिंदगी के सभी कार्य कर्मयोगी या अकर्मयोगी बनकर करते जाते हैं।
सत्संग क्या है
सत्संग क्या है ,और यह क्यों जरूरी है ? यह जानने से पहले आप यह जान ले कि सत्संग कहते किसे है ।
सत + संग = जहाँ पर सत साधन (शास्त्रानुकूल साधना ) व सत का संग हो उसे सत्संग कहते है । सत्संग करने का अधिकार इस दुनिया मे केवल तत्वदर्शी संत को होता है। क्योंकि तत्वदर्शी संत गीता,वेदों और सभी सतग्रंथो को जानने वाला होता है । और वे वेदों में बताई सतभक्ति विधि को सत्संग के माध्यम से लोगो को बताते है।
पूर्ण संत व तत्वदर्शी संत का सत्संग सुन्ना मनुष्य के लिए बहुत लाभदायक होता है । जिसमे हमे बताया जाता है,कि जो मनुष्य जीवन आज हमे मिला हुआ है। वो किस लिए मिला है ।
मनुष्य धन कमाने के लिए खूब संघर्ष करता है लोगो को लुटता व तमाम झूठ बोलता है। चोरी ,जारी , रिश्वत खोरी आदि करता है । उसको ये नही पता होता है कि इन विकारों को करने से व्यक्ति महापाप का भागी बनता है ।
सत्संग में व्यक्ति को अवगत कराया जाता है कि चोरी, जारी, रिश्वतखोरी, नशा आदि करने से व्यक्ति नरक का भोगी व महापाप का भागी बनता है । इसलिए सत्संग बहुत जरूरी होता है। जिस प्रकार मनुष्य को जिंदा रहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । ठीक उसी प्रकार आत्मा को सत्संग की जरूरत होती है ।