‘इन्स्टालमेण्ट’

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-भगवती चरण वर्मा-

चाय का प्याला मैंने होंठों से लगाया ही था कि मुझे मोटर का हार्न सुनाई पड़ा। बरामदे में निकल कर मैंने देखा, चैधरी विश्वम्भरसहाय अपनी नई शेवरले सिक्स पर बैठे हुए बड़ी निर्दयता से एलेक्ट्रिक हार्न बजा रहे हैं। मुझे देखते ही वह हालो, गुड ईवनिंग, सुरेश! -कहकर कार से उतर पड़े।

गुड ईवनिंग, चैधरी साहब! अभी चाय पीने बैठा ही था। बड़े मौके से आए।

चैधरी विश्वम्भरसहाय गठे बठन के लम्बे-से युवक थे। उम्र करीब पच्चीस वर्ष की थी। रंग सांवला, चेहरा लम्बा और मुख की बनावट बहुत सुन्दर। बाल बीच से खिंचे हुए, कलम कान के नीचे तर और दाढ़ी-मूंछ साफ। चेहरे पर पाउडर और क्रीम की एक हलकी-सी अस्पष्ट तह। वह धारीदार सिल्क की शेरवानी पहने थे और उनकी टोपी, जिसे वह हाथ में लिये थे, उसी कपड़े की थी। गरारेदार पाजामाय पैर से मोजा नदारद, लेकिन पेटेण्ट लेदर का ग्रीशियन पम्प।

चैधरी विश्वम्भरसहाय के पिता चैधरी हरसहाय अवध के एक छोटे-मोटे ताल्लुकेदार थे। विश्वम्भरसहाय अपने पिता की एकमात्र सन्तान थे, लेकिन लड़ कर प्रयाग चले आए थे। पिता और पुत्र के स्वभाव में काफी समता होते हुए भी हलकी-हलकी बातों में आपस में गहरा मतभेद रहता था। चैधरी हरसहाय और चैधरी विश्वम्भरसहाय शराब में बराबर रुपया खर्च करते, लेकिन जहां पिता महुए के ठर्रे की सवा बोतल पी जाते थे, वहां पुत्र व्हिस्की के दो पेगों से सन्तुष्ट हो जाया करते थे। न पिता वेश्यागामी थे, न पुत्र। केवल, पिता रियासत की कुछ जवान बारिनों और चमारिनों पर दस-पन्द्रह रुपया महीना खर्च कर दिया करते थे, तो पुत्र नगर में ‘सोसायटी गर्ल्स’ की दावत पर तथा उनकी खेल-तमाशे दिखलाने में दस-पन्द्रह रुपया महीना खर्च कर दिया करते थे। पिता और पुत्र दोनों को ही राजनीति से रुचि थी, लेकिन जहां पिता अमन-सभा के सभापति थे, वहां पुत्र कभी-कभी खद्दर पहन कर कांग्रेस-मंच से व्याख्यान दिया करते थे।

परिणाम स्पष्ट था! एक दिन पुत्र ने पिता को बाग में भूसा भरने वाली कोठरी में बन्द कर दिया और गांव में फिर वापस न आने की कसम खाकर शहर की राह पकड़ी। बारह घण्टे तक गुम रहने के कारण काफी छान-बीन करने के बाद चैधरी हरसहाय उस भूसेवाली कोठरी से बरामद किये गये।

अपने पुत्र की नालायकी पर चैधरी हरसहाय बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने अपना पिस्तौल निकाला। पति का यह उग्र रुप देखकर चैधराइन साहिबा, अर्थात चैधरी हरसहाय की पत्नी या चैधरी विश्वम्भर सहाय की माता ने स्वरों के साथ रोना आरम्भ किया। शायद पत्नी को अकेले रोना चैधरी साहब को बुरा लगा, इसलिए उन्होंने भी अपनी पत्नी के स्वर में अपना स्वर मिलाया। उसके बाद दोनों गले मिले।

प्रयाग आकर चैधरी विश्वम्भरसहाय ने सिविल लाइन्स में एक काटेज किराये पर ली। घर से चलते समय वह काफी रुपये साथ ले आए थे, फिर उनकी माता भी किसी न किसी प्रकार घर का खर्च काट-कूटकर दो-तीन सौ रुपया पुत्र को भेज दिया करती थी।

ष्यार सुरेश, तीन सौ रुपये आज शाम तक चाहिए। आज दिन भर शहर की गली-गली छान डाली, लेकिन कहीं इन्तजाम न हो सका। आखिर में हार कर तुम्हारा दरवाजा देखना पड़ा।ष्

मैं मुसकराया -बस, इतनी-सी बात है! अभी लो! चाय का प्याला चैधरी साहब के सामने बढ़ाते हुए मैंने कहा। कुछ रुककर मैंने फिर पूछा -यार यह न पूछो!

क्या कहीं से कुछ फरमाइश तो नहीं हुई है…? मैंने भेदभरी दृष्टि डालते हुए पूछा।

नहीं, फरमाइश नहीं हुई है, इसका मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूं। सकपकाते हुए चैधरी साहब ने कहा।

मैं ताड़ गया कि दाल में काला है। देखो चोधरी साहब, बनो मत, ठीक-ठीक बतला दो। रुपया मुझसे ही लेना है। हंसते हुए मैंने कहा।

भाई, कल कार का ‘इन्स्टालमेंट’ देना है, बस इतनी-सी बात है।

आखिर तुम्हें यह क्या सूझी जो कार खरीद बैठे, जब तुम्हारे रोज के खर्च भी मुश्किल से चलाये चलते हैं? -मैंने पूछा।

यार, उस दिन फंस ही गये -अब क्या किया जाय।

किस दिन?

अच्छा, तो जो बात अभी तक किसी को नहीं बतलायी, वह तुम्हें बतलानी ही पड़ गयी। तो सुनो! अभी तीन महीने की बात है। भुवन के बड़े भाई आये थे, उनसे मिलने के लिए मैं सुबह उनके बंगले पर पहुंचा। तांगा मैंने बंगले पर पहुंचते ही छोड़ दिया, क्योंकि काफी लोग इकठ्ठा थे और मेरा खयाल था कि जल्दी छुट्टी न मिलेगी। मेरा अनुमान गलत भी न था। खा-पीकर करीब बारह बजे फुर्सत मिली!

मुझे एक काम से चैक जाना था। मैंने भुवन से तांगा मंगवाने को कहा तो मालूम हुआ कि नौकर बीमार है। यह सोचकर कि बाहर निकल कर कोई सवारी ले लूंगा, मैं भुवन के बंगले से चल पड़ा। भाई सुरेश, जानते ही हो कि बरसात की धूप कितनी कड़ी होती है। ठीक दोपहर -जमीन जल रही थी और खोपड़ी चटकी जा रही थी। फाटक के बाहर आकर मैं एक पेड़ की छाया में खड़ा हो गया और सवारी की प्रतीक्षा करने लगा।

मैं करीब आध घण्टे वहां खड़ा रहा, लेकिन कोई खाली तांगा न निकला। तबीयत परेशान हो गई। मेरा बंगला वहां से करीब दो मील की दूरी पर था। पैदल चलने के खयाल से ही आंखों के आगे अंधेरा छा जाता था। कुछ समझ में न आ रहा था कि क्या करूं। अन्त में मैंने यह तय किया कि यदि दस मिनट में कोई सवारी नहीं आती, तो जान पर खेलकर घर तक का रास्ता पैदल ही नापूंगा।

दस मिनट भी हो गयेय पर सवारी का पता नहीं। अब मैंने चलने के लिए कमर बांधी। पैर उठाया ही था कि इक्के की घड़घड़ाहट मुझे सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा, तो एक खाली इक्का चला आ रहा था।

मैं रुक गया। सुरेश, सच कहता हूं कि उस इक्के को देखकर जान में जान आयी। लेकिन उस इक्के की बाबत यहां कुछ बतला देना आवश्यक होगा। मेरा यह खयाल है कि वह इक्का गदर के पहले बना होगा, क्योंकि इतनी पुरानी लकड़ी की चीज मैंने कभी न देखी थी। पहिये छोटे-छोटे, जिन पर लोहे का हाल चढ़ा हुआ था, धुरे से निकलने की लगातार कोशिश कर रहे थे, लेकिन निकल न पाते थेरू क्योंकि लोहे की एक-एक कील उनको रोक रही थी। इसलिए शायद उन कीलों से लड़ने के समय कभी-कभी एक कर्कश आवाज कर देते थे। इक्के की छत बेर-बेर चारों तरफ हिल-डुलकर अपने बुढ़ापे को प्रकट कर रही थी। छत के तीन डण्डे तो मौजूद थे, लेकिन चैथे के जवाब दे देने के कारण बांस का डण्डा लगाया गया था। बाकी तीन डण्डों में भी काफी मरहम-पट्टी हो चुकी थी। उस इक्के पर एक गद्दा बिछा था, जिसके ऊपर का कपड़ा फट गया था और रुई हवा में उड़कर दुनिया में घूमने-फिरने की सोच रही थी।

उस इक्के में जो घोड़ी जुती हुई थी, वह करीब साढ़े तीन फीट ऊंची, पांच फीट लम्बी, एक फीट चैड़ी होगी। उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। वह कभी-कभी रुककर सुस्ताने का प्रयत्न भी कर लेती थी। इक्केवान करीब सत्तर वर्ष के बुजुर्गवार थे, जिनकी दाढ़ी काफी लम्बी थी और सन की तरह सफेद। कमर झुकी हुई और दांत नदारद। उनके एक हाथ में चाबुक था और एक हाथ में घोड़ी की रास। वह उस समय शायद अफीम की पिनक में ऊंच रहे थे।

सुरेश! तबीयत तो न हुई कि उस पर बैठूं, लेकिन मरता क्या न करता! मैं चलते इक्के पर ही उचककर बैठ गया। घोड़ी ने अन्दाज लिया कि इक्के पर बोझ अधिक हो गया और वह विरोध-रूप में खड़ी हो गई। इक्के के खड़े होने के साथ ही जो झटका लगा, तो बड़े मियां ने आंखें खोल दीं। एक ही सांस में घोड़ी को मां-बहिन की गालियां देते हुए चार-पांच चाबुक फटकार गए। घोड़ी को चलना पड़ा। इसके बाद उन्होंने मुझे देखा।

बाबूजी सलाम! -कहां चलना होगा!

बस सीधे चलो। -मैंने कहा, क्योंकि मेरा बंगला उसी सड़क पर था।

थोड़ी दूर चलने के बाद एक तांगा मेरी दाहिनी ओर से आगे बढ़ा। मैंने देखा कि उस तांगे पर दो स्त्रियां बैठी थीं। उन दोनों को तुम भी जानते हो -प्रभा और कमला। ये दोनों जब मैं युनिवर्सिटी में था, मेरे साथ पढ़ती थीं। इधर इन दिनों इन दोनों से मेरी दोस्ती कुछ थोड़ी-सी गहरी हो रही थी। सुरेश, क्या कहूं, इनको देखते ही मेरा चेहरा पीला पड़ गया, कलेजा धक् से हो गया। अगर इन्होंने मुझे इस इक्के पर देख लिया तो?… एकदम मैंने अपना मुंह उधर से फेर लिया।

लेकिन बदकिस्मती से मैं ही अकेला उस इक्के पर था। अगर और सवारियां होतीं, तो शायद मैं छिप भी जाता। तांगा तेजी के साथ बढ़ा जा रहा था, लेकिन एकाएक धीमा हो गया। मैं उस समय पीछे देख रहा था। मैंने सोचा कि तांगा चाहे लाख धीमा किया जाय, मेरे इक्के को नहीं पा सकता। यह सोचकर मैंने संतोष की गहरी सांस ली। लेकिन एकाएक तांगा रुक गया और प्रभा तथा कमला दोनों ही जोर से खिलखिलाकर हंस पड़ीं।

सुरेश, तुम नहीं जान सकते, उस वक्त मेरी क्या हालत थी। लज्जा और क्रोध से मेरे मुख का रंग बेर-बेर बदल रहा था। दिल में तरह-तरह के खयाल आ रहे थे, कभी तबीयत होती थी कि इस इक्केवाले की जान ले लूं, कभी अपनी ही जान लेने की सोचता था। फिर कभी उन दोनों का गला घोंट देने की तबीयत होती थी। लेकिन मैंने अपना मुंह सामने न किया, न किया। मैंने भी इक्के वाले से कहा -इक्का रोक दो। लेकिन काफी देर तक तांगे ने चलने का नाम न लिया, तो मुझे मजबूरन इक्केवाले से कहना पड़ा -इक्का मोड़ लो। और मैं जहां से चला था, वहीं लौट आया।

इतना अपमानित मैं जीवन में कभी न हुआ था। मैंने तय कर लिया कि मैं इन दोनों को दिखला दूंगा कि मेरे पास कार है और इस प्रकार मैं अपने आत्म-सम्मान पर लगे हुए धब्बे को धो दूंगा। उसी दिन शाम को मैंने यह कार ले ली। पास में रुपया न था, इसलिए, ‘इन्स्टालमेंट सिस्टम’ पर यह कार लेनी पड़ी।

मैं हंस पड़ा -अच्छा! इस तरह से कार आयी। खैर, कार तो आ गई।

चैधरी विश्वम्भर सहाय ने चाय का दूसरा प्याला बनाते हुए कहा -यार सुरेश! यह कार मैं नहीं रख सकता! अपना खर्च चलाना ही मुश्किल पड़ रहा है, कार तो एक बला पीछे लगी। लेकिन क्या करूं मजबूर हूं। जिस दिन से कार ली है, उस दिन से उन दोनों की शक्ल ही नहीं दिखलाई दी। आज दो महीने से दिन-रात कार पर चक्कर लगा रहा हूं। शहर की हर एक सड़क छान डाली और उनके मकान के तो न जाने कितने चक्कर लगा डाले, सिर्फ इसलिए कि वे मुझे कार पर कहीं देख लें लेकिन न जाने कहां गायब हो गईं कि उनका पता ही नहीं लगता। जिस दिन उन्होंने यह कार देखी, उसके दो-चार दिन बाद ही मैं यह कार बेच दूंगा। बाबा, मैं कार से बाज आया। अच्छा, अब ‘इन्स्टालमेण्ट’ के लिए रुपया तो निकालो।

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