बंगाल Bengal के हरसोला गाँव में भक्त प्रतापराय रहते थे। पिता भानुराय की मृत्यु हुई तो प्रतापराय ने विचार किया- “देह तो क्षणभंगुर है, कब तक रहता? फिर पिताजी ने भगवान का नाम जपते हुए शरीर छोड़ा है।
मरने में कष्ट तो उनको होता है, जिनका मन भोगों में फंसा होता है और जो देह को ही आत्मा मानते हैं। पिताजी तो आत्मनिष्ठ थे। वैकुंठ पधारने से उन्हें आनन्द हुआ होगा। उनके इस आनन्द में दुख मनाकर, मैं अपनी नीचता क्यों प्रकट करूँ?”
कुछ वर्षों बाद माता कुसुमी की, और प्रतापराय के एकमात्र पुत्र दीनबन्धु की भी मृत्यु हो गयी।
प्रतापराय ने पत्नी मालती से कहा- “देखो! यह सब भगवान की ही लीला है। भगवान इसे देकर इसके द्वारा अपनी सेवा कराते थे। अब इस सेवा की इच्छा न रही होगी। अब वे हमें किसी दूसरी सेवा में नियुक्त करना चाहते हैं तो चिन्ता कैसी?”
“फिर मृत्यु है भी क्या? यह तो जीवन-नाटक का नैसर्गिक पर्दा है, ये पर्दा न हो तो नाटक की शोभा ही क्या? जीव पर्दे के पीछे जा, वेश बदल कर आता है। हमें तो देखने से मतलब है। रूप से क्या? मिलना-बिछुड़ना तो इस खेल के अंश मात्र हैं। फिर रोना किस बात का?”
“भगवान तो हमारा मंगल करने में लगे रहते हैं। हम अदूरदर्शी मनुष्य ही विषयासक्ति के कारण अपना मंगल नहीं देखते और नाली के कीड़े की भाँति विषयरूपी नरक में ही पड़े रहना चाहते हैं। सर्वदर्शी अंतर्यामी कल्याणकारी भगवान से किस कल्याण के लिये प्रार्थना की जाए? उनसे तो कुछ भी माँगना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है।”
इन्हें षडयंत्रवश जेल हुई तो बोले- “बड़ी कृपा हुई जो भगवान ने हमें सब झंझटों से छुड़ा कर, हम दोनों के लिए जबरदस्ती एकांतवास की सुविधा कर दी। हम लोगों का तो परम धन उनका भजन ही है।”
भगवान ने इन्हें दर्शन दिए और कहा- “तुम्हें विशेष रूप से अपना सकूं, इसी के लिए तुम्हारे कर्मों का बचा-खुचा फल, आत्मजन वियोग, अपमान, कलंक और जेल के रूप में भुगताकर तुम्हें कर्म मुक्त किया है। अब तुम सब ही प्रकार से मेरे में प्रवेश करने योग्य बन गये हो।”
भक्तराज अपने पर कलंक लगाने वालों के प्रति बोले- “भाइयों! तुम्हारा इस में कोई दोष नहीं है। तुम तो मेरे ही किए कर्मों का फल देने को, निमित्त बन गए हो। इससे मेरा लाभ ही हुआ, भगवान का दर्शन हुआ। तुम्हारे इस उपकार के लिए मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ।”
“यह घर भगवान का बगीचा है। हम माली हैं, मालिक नहीं हैं। माली का काम पेड़ लगाना, खाद-पानी देना है। फल तो मालिक के हैं। पुत्रादि इस बगीचे के फल हैं। उन्हें यदि भगवान ले जाएँ तो हमें कैसा दुख?”