Special Report -शोषण का शिकार होती हैं महिला प्रवासी श्रमिक

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महिलाओं के लिए श्रम और प्रवास को सुरक्षित और न्यायोचित न बनाने का अब कोई बहाना नहीं. Working conditions for women laborer is not very secure and protective in India even after constant efforts of Central and state govt. They have to face inhumane humiliation in the struggle to survive and meet their daily needs. Most of the times all these crimes went unreported.

अर्थ व्यवस्था में महिला प्रवासी श्रमिक एक बड़ा योगदान देती आ रही हैं परंतु वे स्वयं अनेक प्रकार की लैंगिक और योनिक हिंसा और शोषण का शिकार होती हैं। उनके श्रम और प्रवास को सुरक्षित और न्यायोचित बनाने के जो भी प्रयास हुए हैं वे नाम मात्र और असंतोषजनक हैं। किसी भी समाज में महिलाओं के साथ हिंसा और शोषण मानवाधिकारों का सबसे विकृत उल्लंघन है। समाजवादी गांधीवादी विचारक डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि हमारे समाज में जो 7 प्रकार की असमानताएँ व्याप्त हैं उनमें से लैंगिक असमानता समाप्त करना सबसे अधिक आवश्यक और सबसे कठिन कार्य है। लैंगिक असमानता को समाप्त किए बिना सतत विकास लक्ष्य पर हम खरे उतर ही नहीं सकते।

हालाँकि लैंगिक समानता लाने की दिशा में कहीं-कहीं थोड़ी बहुत प्रगति हुई है, परंतु जब तक हम महिला हिंसा के मूल जनकों को नहीं समाप्त करेंगे तब तक लैंगिक समानता कैसे आएगी? महिला हिंसा कम ही नहीं करनी है बल्कि पूरी तरह से समाप्त करनी है। इसके पूर्ण समापन के लिए आवश्यक है कि हम हिंसा के मूल जनकों को ख़त्म करें जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चलते हमारे समाज के रोम रोम में व्याप्त है।

पुरुष जिन ‘विशेषाधिकारों’ को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मान बैठे हैं उन्हें वह त्यागना ही पड़ेगा क्योंकि हमारे समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की हिंसा, शोषण और अमानवीय अत्याचारों- विशेषकर महिलाओं और अन्य दबे हुए तबकों के प्रति-की जनक पितृसत्तात्मकता ही है। याद रहे कि लैंगिक समानता के बिना सतत विकास संभव ही नहीं है।

महिला प्रवासी श्रमिक भी इसी कारण से अनेक प्रकार के अन्याय, शोषण और हिंसा की शिकार होती आयीं हैं। महिला अधिकार पर कार्यरत और संयक्त राष्ट्र महिला (यूएन वीमेन) की अध्यक्ष सीमा बहोस ने इस वर्ष के महिला हिंसा समाप्त करने के 16 दिवसीय अभियान (जो प्रत्येक वर्ष 25 नवंबर से 1 दिसंबर तक मनाया जाता है) के आरंभिक दिवस पर कहा कि: “लैंगिक और योनिक हिंसा न सिर्फ़ महिलाओं और किशोरियों के ख़िलाफ़ एक अपराध है बल्कि समस्त मानवता के प्रति भी।

इस हिंसा की एक बहुत महँगी क़ीमत भी हम चुकाते हैं – कुछ देशों की जीडीपी का 3.7 फीसदी इस हिंसा के कारण कम हो जाता है। इसके बावजूद भी महिला हिंसा को समाप्त करने हेतु आवश्यक निवेश बहुत ही कम है – 2022 में कुल विकास व्यय का सिर्फ़ 0.2 फीसदी। इस निवेश को न करना और भी पीड़ादायक हो जाता है क्योंकि हमें पता है कि कैसे महिला हिंसा कम और ख़त्म करनी है परंतु हम कर नहीं रहे हैं!

हमें क़ानून और नीतियों में परिवर्तन करना है जिससे कि महिला अधिकार को सम्मान और न्याय मिले, महिला हिंसा के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ रहे लोगों को सभी मुमकिन सुरक्षा और सेवाएँ मिलें, जिन प्रमाणित तरीक़ों से लैंगिक और योनिक हिंसा से बचाव होता है उनको बड़े स्तर पर लागू करें, और जो महिला हिंसा के जनक हैं उनके विरुद्ध कार्यवाई हो।”

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस महिला हिंसा उन्मूलन दिवस पर कहा कि “हम अभी भी पुरुष-प्रधान समाज में रहते हैं जो महिलाओं को गरिमा और अधिकारों की समानता से वंचित करके उन्हें असुरक्षित छोड़ देता है। हमें ऐसे विश्व का निर्माण करना है जो हमेशा के लिए महिलाओं के खिलाफ कहीं भी और किसी भी रूप में हुई हिंसा को बर्दाश्त करने से इनकार कर दे।” मानवाधिकार उल्लंघनों में सबसे अधिक प्रचलित और सबसे अधिक घिनौनी हिंसा, महिला हिंसा ही है। मैंने नौ साल पहले इरवेना सुलिस्टनिंगशी से एक साक्षात्कार किया था। उन्होंने जो कहा था वह आज भी प्रासंगिक है जो अत्यंत कष्टदायक है।

इरवेना इंडोनेशिया की निवासी हैं जो एक प्रवासी श्रमिक के रूप में तब हाँग काँग आयीं थीं। उनका परिवार उनकी कॉलेज शिक्षा का व्यय उठाने में असमर्थ था और इंडोनेशिया में उन्हें उचित आय पर नौकरी नहीं मिल पा रही थी। इसलिए उन्होंने एक प्रवासी श्रमिक के रूप में हाँग काँग जाने का फ़ैसला किया। उन्होंने हाँग काँग इसीलिए चुना क्योंकि वह सुरक्षित देश माना जाता था।

जब वह हाँग काँग पहुँची तो उनके पासपोर्ट और रोज़गार संबंधित सभी क़ानूनी काग़ज़ात, काम देने वाली एजेंसी ने अपने पास रख लिए। वहाँ उन्हें घरेलू काम करने की नौकरी मिली। परंतु उनकी मालकिन का व्यवहार बहुत बुरा था। वह उन्हें मारती थी, दिन भर में 4 घंटे से ऊपर सोने नहीं देती थी, और उन्हें पर्याप्त भोजन भी नहीं मिलता था। उनको बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, किसी से बात करने की अनुमति नहीं थी, और फ़ोन का उपयोग करने पर पाबंदी थी।

8 महीने इस हिंसा और शोषण को झेलने के बाद, जब उनका शरीर भी चोट ग्रस्त होने के कारण काम करने लायक़ नहीं रहा तब उनकी मालकिन ने अचानक एक दिन उनको इंडोनेशिया वापस भेजने का निर्णय लिया। उनको एयरपोर्ट लाकर, ‘चेक-इन’ आदि करवा के छोड़ दिया गया, जबकि वे अपनी शारीरिक चोटों के कारण ठीक से चल भी नहीं पा रही थीं। उन्हें यह धमकी भी दी गई कि यदि उन्होंने अपनी आपबीती किसी से भी साझा की तो उनके परिवार को ख़त्म कर दिया जाएगा। सौभाग्य से वहाँ उनको एक इंडोनेशियन महिला मिली जिसके न सिर्फ़ उनको घर तक पहुँचाने में मदद की बल्कि उनकी चोटों की फोटो ले कर फ़ेसबुक पर पोस्ट की।

पर यह समाचार वायरल हो गया। अंततः इरवेना को रोज़गार देने वाले को हाँग काँग में सजा हुई। टाइम मैगज़ीन के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में भी इरवेना को शामिल किया गया। यह बात इरवेना ने मुझसे नौ साल पहले कही थी परंतु आज भी मूलतः सत्य ही है: “महिलाओं और किशोरियों को शोषण होने पर अपनी आवाज़ उठानी चाहिए। हमें एक दूसरे के साथ एकजुट हो कर इस शोषण और बहिष्कार के ख़िलाफ़ कार्यरत होना होगा। मेरा मुद्दा इसीलिए ज़ोर पकड़ पाया क्योंकि प्रवासी श्रमिकों का मज़बूत आंदोलन उसके समर्थन में एकजुट हो कर निडरता के साथ खड़ा था।”

दुनिया में कुल प्रवासी श्रमिकों में से, जिनकी संख्या लगभग 30 करोड़ है, 30 फीसदी तो एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र में ही हैं और इनमें से लगभग 50 फीसदी महिलाएँ हैं। दक्षिण-पूर्वी एशिया और पैसिफ़िक में 1.16 करोड़ पंजीकृत श्रमिक हैं जिनमें से आधी महिलाएँ हैं। फ़िलीपींस, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, मलेशिया, वियतनाम, सिंगापुर, थाईलैण्ड, आदि देशों में 1 करोड़ श्रमिक हैं जिनमें से आधी महिलाएँ हैं।

एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र में ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है जो रोज़गार की तलाश में प्रवास करती हैं, जिससे कि उनका और उनके परिवार का भरण-पोषण सम्मानजनक ढंग से हो सके। इस प्रवास का एक बड़ा कारण है उनके मूल निवास क्षेत्र में सम्मानजनक आय वाले काम का अभाव और बाहरी देशों में मेहनतकश श्रमिकों की बढ़ती हुई आवश्यकता। अनेक विकसित देशों से कुछ ख़ास पेशों के लिए महिला श्रमिकों की माँग रहती है जैसे कि घरेलू कार्य, नर्सिंग का कार्य, आदि।

महिला प्रवासी श्रमिक- जिस देश से आती हैं और जिस देश में वे काम करती हैं- वहाँ की अर्थ और सामाजिक व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। एक क्षेत्रीय शोध के अनुसार, दक्षिण पूर्वी एशिया देशों की अर्थ व्यवस्था में महिला प्रवासी श्रमिकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उदाहरण के लिए, 2021 में फ़िलीपींस मेंअमरीकी डॉलर 37 अरब का योगदान इन श्रमिकों की वजह से रहा (जो इस देश की कुल जीडीपी का 9.4 फीसदी), और वियतनाम में उनका आर्थिक योगदान उसकी जीडीपी का 5 फीसदी है। इसके बावजूद भी विडंबना यह है कि महिला प्रवासी श्रमिक, पुरुषों की तुलना में कम वेतन पाती हैं।

एक ओर तो इन प्रवासी श्रमिकों की वजह से देशों की अर्थ व्यवस्था सशक्त होती है और महिलाएँ भी सशक्त होती हैं, परंतु दूसरी ओर, इन महिला श्रमिकों को हिंसा, मानव तस्करी, और शोषण का शिकार होने का अधिक ख़तरा उठाना पड़ता है। इसके कारण इन महिला श्रमिकों की न्यायसंगत और सुरक्षित कार्य पाने की क्षमता भी शिथिल हो जाती है। महिला प्रवासी श्रमिक दोहरी मार झेलती हैं- जिस देश की वह मूल निवासी हैं वहाँ पर महिला होने के नाते झेलती हैं, और जिस देश में वह रोज़गार पाती हैं वहाँ प्रवासी होने के कारण शोषित होती हैं।

एशिया पैसिफ़िक देशों में 30-40 फीसदी, महिला प्रवासी श्रमिकों ने किसी न किसी रूप में शोषण होने की रिपोर्ट की है। एक और शोध के अनुसार, जिसमें बांग्लादेश की मूल निवासी महिला श्रमिकों ने भाग लिया था, सभी ने (100 फीसदी) रोज़गार देने वाले के यहाँ शारीरिक, मानसिक, या योनिक शोषण झेला, और 60 फीसदी ने रोज़गार के दौरान शारीरिक उत्पीड़न झेला।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जो लोग तमाम ‘विशेषाधिकार’ को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं (अधिकांश पुरुष), वे शक्ति और नियंत्रण के ज़रिए उनको वश में करते हैं जो इन अधिकारों से वंचित रहते हैं (अधिकांश महिलाएँ)। ग़ैर-बराबरी न सिर्फ़ लैंगिकता या योनिकता तक सीमित है बल्कि सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक भी है जिसके कारण महिलाएँ जीवन चक्र के हर कदम पर नुक़सान उठाती हैं।

जो भी व्यक्ति श्रम के लिए प्रवास करना चाहता है तो पूरी जानकारी और पूरी रज़ामंदी के साथ यह उसका अधिकार होना चाहिए और उसे हर प्रकार की हिंसा या शोषण से मुक्त होना चाहिए। प्रवासी महिला श्रमिकों के शोषण पर रोक लगाने हेतु, यदि महिलाओं को श्रम के लिए प्रवास पर रोक लगायी जायेगी तो यह उनके साथ अन्याय होगा क्योंकि ऐसा करने पर उनको अधिक हिंसा और शोषण झेलने के लिए विवश होना पड़ेगा। संयक्त राष्ट्र महिला (यूएन वीमेन) और इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइज़ेशन (आइएलओ) ने यूएनओडीसी के साथ सुरक्षित और न्यायोचित श्रम और प्रवास के लिए सफल प्रयास किए हैं जो एशिया पैसिफ़िक के अन्य देशों में भी लागू करने चाहिए।

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