सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।
श्रीहनुमान जी अपने प्रभु राजदुलारे श्रीरघुनंदन के चरणों में पूर्ण समर्पित आप्तकाम निष्काम सेवक हैं। उनका सर्वस्व प्रभु की सेवा का उपकरण है। उनके सम्पूर्ण अङ्ग प्रत्यङ्ग, रद, मुष्टि, नख, पूँछ, गदा एवं गिरि, पादप आदि प्रभु के सेवा मार्ग में अवरोध उत्पन्न करनेवाले अमङ्गलों के नाशके लिये दिव्य आयुध हैं। #Hanuman Jayanti, #Shri Ram, # Ram, #Bajrangbali
श्रीहनुमान जी वज्राङ्ग हैं- सभी आयुधों से अवध्य हैं। ‘वरुणदेवता ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया था, यम ने अपने दण्ड से अभयदान दिया था, कुबेर ने गदाघात से अप्रभावित होने का वर दिया था और भगवान् शंकर ने शूल तथा पाशुपत आदि अस्त्रों से अभय होने का वरदान दिया था। प्रजापति ने कहा था कि ये ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मदण्ड आदि से अवध्य होंगे। अस्त्र-शस्त्रों के कर्ता विश्वकर्मा ने उन्हें समस्त आयुध से अवध्य होने की बात कही थी’-

अमरत्वं च वरुणः स्वदण्डादभयं यमः । निष्कम्पतां गदाघाते स्वायुधेषु च वित्तपः ॥ शूलपाशुपतादिभ्यो ऽप्यभयं भगवान् भवः। ब्रह्मास्त्रब्रह्मदण्डाद्यैरवध्यत्वं प्रजापतिः ॥ सर्वायुधप्रतीपा विश्वकर्माशस्कृत् ॥
(रामायणमञ्जरी, उत्तरकाण्ड ७१०-१२ )
खड्गं त्रिशुलं खट्वाङ्गं पाशमंकुशपर्वतम् |
मुष्टी तु कोमोदकौ वृक्षं धारयन्तं कमण्डलूम् ॥
(सामवेद सुदर्शन संहिता~ पंचमुखी हनुमंत स्तोत्र)
हनुमान जी के हाथों में तलवार, त्रिशूल, खट्वाङ्ग नाम का आयुध, पाश, अंकुश, पर्वत हैं। साथ ही, मुष्टि नाम का आयुध, कौमोदकी गदा भी हैं। हनुमानजी ने एक हाथ में वृक्ष और एक हाथ में कमंडलु भी धारण किया है।
कुछ नए नवेले बुद्धिजीवी आजकल उत्पन्न हो गए हैं जो कहते हैं कि हनुमानजी कभी गदा धारण नहीं करते थे क्योंकि वाल्मीकि रामायण में उसका जिक्र नहीं है। मुझे इसकी संगति समझ ही नहीं आई कि बाल्मीकि रामायण में जो नहीं मिल रहा उसे नहीं मानेंगे ऐसे तो महाभारत में भगवान श्री कृष्ण के बाल चरित्र का वर्णन नहीं है तो क्या उनका बचपन था ही नहीं, या वाल्मीकि रामायण और श्रीमद् रामचरितमानस में भगवान श्री राम के भी बचपन का इतना विवरण नहीं है तो क्या उनका बचपन था ही नहीं? लंपट पने की भी हद है , जैसे वाल्मीकि रामायण में ही वर्णन है कि भगवान श्रीराम को जब शस्त्र दिए जा रहे थे तो उन्हें विष्णु चक्र से भी सुशोभित किया गया था लेकिन पूरी रामायण में उन्होंने कहीं भी विष्णु चक्र का इस्तेमाल नहीं किया। वैसे ही गदा सदैव बजरंगबली के साथ ही रहती है लेकिन बहुत आवश्यकता पर ही वह उसका इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उनका हाथ ही काफी होता है। ऐसे लोग ज्यादा नेता बनने के चक्कर में बेज़झाती और करवा लेते हैं।
श्रीहनुमान जी युद्धवीर हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है कि ‘शिव, स्वामि कार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द – सबकी युद्धरूपी नदी के पार जानेमें वे समर्थ एवं योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी वन्दीजन उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि आप सत्य प्रतिज्ञ एवं चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं, जिनके गुणों की कथा को रघुनाथजी ने श्रीमुखसे स्वयं कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार समुद्र सूख गया। उन सुन्दर राजपूत (पवनकुमार)- के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? अर्थात् दूसरा कोई है ही नहीं।
‘पंचमुख- छमुख भृगुमुख्य-भट-असुर-सुर, सर्व-सरि समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी वदत पैज पूरो।। जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल बिपुल जल भरित जग-जलधि झूरो ॥
दुवन-दल-दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रूरो ॥
(हनुमानबाहुक ३)
पञ्चमुख हनुमान को दस आयुधों से समलंकृत कहा गया है-
खड्गं त्रिशूल खट्वांड़्ग पाशमङ्कुशपर्वतम्
ध्रुवमुष्टिगदामुण्ड दशभिर्मुनिपुङ्गव ।
एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ॥
[श्रीविद्यार्णवतन्त्र (हनुमत्प्रकरण) ३३।८-९]
खड्ग, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, पाश, अङ्कुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष (की डाली) ही उनके दस आयुधों के रूपमें परिगणित हैं।
श्रीहनुमान जी का बायाँ हाथ गदा से युक्त कहा गया है। गदा उनके हाथ में रहने वाला एक प्रमुख आयुध है-
‘वामहस्तगदायुक्तम्‘
(मन्त्रमहार्णव, पूर्वखण्ड, नवम तरंग, पृष्ठ १८५)

श्री लक्ष्मण और रावण के युद्ध में लक्ष्मण को पराजित होते देख हनुमान जी ने गदा का प्रयोग किया था। ‘वे हाथ में गदा लेकर दौड़ पड़े थे। उस समय वे ऐसे लगते थे मानो प्रलयकाल में जगत्के संहार में तत्पर कुपित रुद्र हो । रावण के रथ को उन्होंने गदा से भङ्ग कर दिया और उसके बाद तरु- गिरि-पाषाण की वृष्टि की।’
हनुमंत धायो ते समे, कर गदा ग्रही निरवाण ।
प्रलय समे जेम रुद्र कोपे, लेवा जगत ना प्राण ॥
ते गदा मारी भंग कीधो, रावण नो रथ जेह।
पछे तरु- गिरि पाषाण नी वृष्टि करी जेम मेह ॥
(गिरिधर- रामायण, युद्धकाण्ड १६ १-२ )
स्कन्दपुराणमें हनुमानजीको युध धारण करनेवाला कहकर उनको नमस्कार किया गया है-
नमः श्रीरामभक्ताय अक्षविध्वंसनाय च ।
नमो रक्षः पुरीदाहकारिणे वज्रधारिणे ॥
(स्कन्दपु०, ब्रह्मखण्ड, धर्मारण्यमा० ३७ । ३)
उनके हाथमें वज्र सदा विराजमान रहता है- हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।’ (हनुमानचालीसा) गिरि, नख और तरु उनके आयुधोंमें परिगणित हैं। उनकी ‘करालशैलशस्त्रधारी‘ और ‘द्रुमशस्त्रवाले‘- के रूपमें स्तुति की गयी है-
करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते नमः ।
(श्रीविद्यार्णवतन्त्र, हनुमत्स्तुतिप्रकरण २८ । १३)
पर्वतका शिखर उठाकर राक्षसों की सेना को भगाकर मारुतात्मज हनुमान ने धूम्राक्ष पर आक्रमण किया था—
विद्राव्य राक्षसं सैन्यं हनूमान् मारुतात्मजः ।
गिरे: शिखरमादाय धूम्राक्षमभिदुद्रुवे ॥
(वा० रा० ६ ।५२ ।३२)
उसी गिरिशिखर से उन्होंने धूम्राक्षका वध किया था- हनूमान् गिरिशृङ्गेण धूम्राक्षमवधीद्रिपुम्। (अग्निपुराण १०।८)
नारद पुराण के पूर्व भाग के तृतीयपाद के ७८ वें अध्याय के ४४ वें श्लोकमें उन्हें ‘करस्थशैलशस्त्राय‘ कहा गया है। लंका के दुर्ग का विध्वंस करते समय हनुमान जी ने क्रोधपूर्वक मेघनाद पर पर्वत से आक्रमण किया था-
पवनतनय मन भा अति क्रोधा गर्जेड प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥
(रामचरितमानस ६। ४२। ३)
रावण और विभीषण के युद्ध में भी उन्होंने पर्वत का उपयोग किया था-
देखा श्रमित बिभीषनु भारी धायउ हनूमान गिरि धारी ॥
(रामचरितमानस ६ ९४ । ३)
नखायुध और दन्तायुध रूप में भी उनकी स्तुति की गयी है। वे नखों और दाँतों से शस्त्र का काम लेते हैं-
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च। विहगाय शर्वाय वज्रदेहाय ते नमः ॥
(नारदपुराण, पूर्व०, तृतीय० ७८ । ४३)
‘हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र’ के ९१वें श्लोक में उन्हें ‘नखयुद्धविशारदः’ कहा गया है। उनके नखों की उपमा वज्रसे दी गयी है-
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन ॥
(हनुमानबाहुक २)
अशोक वाटिका उजाड़ते समय राक्षसों के संहार के लिये उन्होंने वृक्षको आयुध बनाया था। हनुमानजी ने एक विशाल साल-वृक्ष उखाड़ कर उसे घुमाना आरम्भ किया-
सालं विपुलमुत्पाट्य भ्रामयामास वीर्यवान् ॥
( वा० रा० ५। ४४ । १२)
अक्षकुमार को आते देखकर हनुमान जी ने हाथ में वृक्ष ले लिया और उसको मारकर घोर नाद किया-
आवत देखि बिटप गहि तर्जा ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
(मानस ५।१७।४ )
उन्होंने लंका में युद्ध छिड़ने पर महान् वेग से एक वृक्ष को उखाड़ कर अकम्पन के सिर पर प्रहार किया—
ततोऽन्यं वृक्षमुत्पाट्य कृत्वा वेगमनुत्तमम् । शिरस्यभिजघानाशु राक्षसेन्द्रमकम्पनम् ॥
( वा० रा० ६५६।२९)
वे रद से भी शस्त्र का काम लेते हैं। नारदपुराणके पूर्वखण्ड कृतीयादके ७८ अध्याय ४ श्लोकमें ‘दन्तायुधधराय‘ कहकर उन्हें नमस्कार किया गया है। महाकवि चंदबरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो’ में उनके रदयुद्ध का अत्यन्त सजीव वर्णन किया है- “हनुमानजी ने लंका में भ्रमण करते हुए सीताजी को खोज लिया और मन में श्रीराम का चिन्तन कर बड़े क्रोध से सघन उपवन को नष्ट कर दिया। उन्होंने दीवार पर चढ़कर रद-युद्ध द्वारा अक्षकुमार आदि दनुज वीरों का संहार कर दिया। जब शेष वीरों ने मेघनाद को सूचना दी, तब उसने जाकर उनको पाश में बाँध दिया और उनकी पूँछ में वस्त्र लपेटकर कहा कि ‘तुम्हारा अन्त निकट है – ऐसा कहकर उसने वस्त्र से लिपटी हुई उनकी पूँछ में आग प्रज्वलित कर दी, इस तरह उसने सुवर्णमयी लंका को ही जलाकर कीचड़ कर दिया”-
गयी लंक हनुयेस, भ्रमत सुधि सीता पाइय वन-उपवन संघरिय, धरे मन राम दुहाइय ॥ वाय चढ्यौ प्राकार, दसन जुद्धह दनु भखिय । अखै कुमारन हनिय, दौरि इंद्राजित दख्खिय ॥ निखि पास रास दृढ़ बंधयौ कहि सु मरन अंबर धरी लग्गाय पुच्छ लंका जरिय, कनक पंक किनौ खरौ ॥
(पृथ्वीराजरासो २।१३)
मुष्टिका को भी वे शस्त्र के रूपमें उपयोग करते दिखलाये गये हैं। लंकाके युद्धस्थल में उन्होंने कुम्भकर्ण पर मुष्टि का प्रहार किया था-
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। परयो धरनि व्याकुल सिर धुन्यो ।।
(रामचरितमानस ६ ।६४ । ३)
उन्होंने कालनेमि पर गुरुदक्षिणा के रूपमें मुष्टि-प्रहार किया था। उन्होंने उससे दृढ़ मुष्टिका के रूप में गुरुदक्षिणा लेने को कहा और उसे मार डाला-
गृहाण मत्तो मन्त्रांस्त्वं देहि मे गुरुदक्षिणाम् । इत्युक्तो हनुमान् मुष्टिं दृढं वद्ध्वाह राक्षसम् ॥ गृहाण दक्षिणामेतामित्युक्त्वा निजघान तम् ॥
अध्यात्मरा० ६ । ७ ३०-३१)
उन्होंने रावण पर मुक्के से प्रहार किया था। वे युद्ध करने के लिये उसके सामने आये। उन्होंने कसकर मुट्ठी बाँधी और उससे उसकी छाती पर प्रहार किया। घूँसा लगते ही वह रथ में घुटनों के बल गिर गया। रावण ने कहा कि मैं मानता हूँ- ‘तुम बड़े शूरवीर हो’-
हनूमानथ चोत्प्लुत्य रावणं योद्धुमाययौ।
आगत्य हनुमान् रक्षवस्तुविक्रमः ।।
मुष्टिबन्धं दृढं बद्ध्वा ताडयामास वेगतः।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद् रथे ॥
मूर्च्छितोऽथ मुहूर्तेन रावणः पुनरुत्थितः।
उवाच च हनूमन्तं शूरोऽसि मम सम्मतः॥
(अध्यात्मरा० ६ ११/६–८)
श्रीहनुमान जी अक्षकुमार (रथ के) आठ घोड़ोंको थप्पड़ से मार डाला । थप्पड़ भी उनके शस्त्र रूप में परिगणित हैं-
स तस्य तानष्टवरान् महाहयान् समाहितान् भारसहान् विवर्तने ।
जघान वीर: पथि वायुसेविते तलप्रहारैः पवनात्मजः कपिः॥
( वा० रा० ५। ४७ । ३१)
वज्रदेह हनुमानजी का अत्यन्त प्रभावशाली शस्त्र लाङ्गूल-पूँछ है। गन्धमादनपर्वतपर कदली-वन में विश्राम करते समय भीमने उन्हें देखा था । उन्होंने भीम का मार्ग रोक लिया और अपना शरीर बड़ा कर लिया । ‘जब श्रीहनुमान जी इन्द्रकी ध्वजाके समान ऊँची तथा विशाल अपनी लाङ्गूल को फटकारते, उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के समान आवाज होती थी। वह पर्वत उनकी पूँछ की फटकार के उस महान् शब्दको सुन्दर कन्दरारूपी मुखों द्वारा चारों ओर प्रतिध्वनि के रूप में दुहराता था, मानो कोई साँड़ जोर-जोरसे डकार रहा हो । पूँछ के फटकारने की आवाज से वह महान् पर्वत हिल उठा । उसके शिखर झूमते-से जान पड़े और वह सब ओर से टूट-फूटकर बिखरने लगा। वह शब्द मतवाले हाथी चिग्घाड़ने की आवाज को भी दबाकर विचित्र पर्वत- शिखरों पर चारों ओर फैल गया । ‘
जृम्भमाणः सुविपुलं शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम् ।
आस्फोटयश्च लालमिन्द्राशनिसमस्वनम् ॥
तस्य लालनि पर्वतः सुगृह्यमुखः ।
उद्गारमिव गौर्नर्दनुत्ससर्ज समन्ततः ॥
लागलायोदशब्दाच्य चलितः स महागिरिः। विघूर्णमानशिखर समन्तात् पर्यशीर्यत ॥
स लाङ्गूलरवस्तस्य मत्तवारणनिःस्वनम् ।
अन्तर्धाय विचित्रेषु चचार गिरिसानुषु ॥
( महाभारत, वन० १४६ । ७०-७३)
उनकी पूँछके प्रचण्ड आघात का वर्णन ‘हनुमन्नाटक’- में इस प्रकार उपलब्ध होता है- ‘हनुमानजीके कर- कमल में स्थित पर्वत सुमेरुपर्वत पर स्थित मैनाकके समान शोभित हुआ और बड़े-बड़े समर्थ वीरों की समाप्ति जिसमें हो, उस समरमें कुम्भकर्ण के हाथका मुद्गर मन्दराचल पर भगवान् की मूर्तिके समान दीख पड़ा। उस समय आञ्जनेय द्वारा फेंके गये पर्वतको राक्षस कुम्भकर्णने अपने मुद्गर से टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब उन्होंने बड़े क्रोध से अपनी पूँछसे उस मुद्गर को खींच लिया। उद्यत पवन कुमारके प्रचण्ड चपेटकी चोट से कुम्भकर्ण का सिर हिमालय पर पड़ा, जिसके जलमें भीमसेन गोते लगायेंगे और पूँछसे कटा घड़ आकाश में जाकर घूमने लगा’-
मैनाको मेरुशृङ्गस्थित इव हनुमत्पाणिपये नगेन्द्रः कल्पान्ते मन्दराग्रेऽजन इव समरे मुद्ररः कुम्भकर्णे ।
अद्रिं क्रव्यादवीरः प्रहितमनिलजेनाच्छिनन्मुद्गरेण लाङ्गू लेनाञ्जनेयोऽद्भुतजनितरुषा मुद्ररं द्राक् चकर्ष ॥
उद्यन्मरुत्तनयचण्डचपेटघाता न्मूर्धा पपात तुहिने रजनीचरस्य भग्नो भविष्यति यदम्भसि भीमसेनो बभ्राम पुच्छनिकृतो गगने कबन्धः ॥
(हनुमन्नाटक ११ ३६, ३८ )
‘रंगनाथ – रामायण’ के युद्धकाण्डके १२७ वें अध्यायमें वर्णन है कि ‘द्रोणाचल आनयन के समय हनुमानजी ने कालनेमि का वध किया; दस योजन विशाल और दस योजन ऊँचे पर्वतको उखाड़ लिया तथा चित्रसेन आदि तेईस करोड़ गन्धर्वो को पूँछ में लपेटकर समुद्र में फेंक दिया।’
नारदपुराणके पूर्वभागके तृतीयपादके ७८वें अध्याय के १३वें श्लोक में सनत्कुमा रद्वारा वर्णित ‘हनुमत्कवच‘ में उन्हें ‘चरणायुधः‘ कहा गया है। जिनके चरण आयुध हैं, वे हनुमान जी हाथों की रक्षा करें’- ……..करौ च चरणायुधः।
गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है कि ‘कच्छप की पीठमें जिनके पाँव के गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र हुए। राक्षसों के नाश के समय वह समुद्र ही उनके छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बड़े- बड़े मत्स्यों का निवास बना’-
कमठ की पीठि जाके गोड़नि की गाड़ें मानो नाप के भाजन भरि जलनिधि जल भो । जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।
(हनुमानबाहुक ७)
अध्यात्मरामायण में उल्लेख है कि हनुमानजी ने मुद्गरसे अक्षकुमार को मार डाला। ‘उसे देखकर वे अपनी गदा (मुदगर) लेकर आकाश में उड़ गये और बड़े वेग से ऊपर से ही उन्होंने उसके मस्तक पर गदा से प्रहार किया। इस प्रकार अक्षको मारकर उसकी सेना को भी समाप्त कर दिया’-
तमुत्पपात हनुमान् दृष्ट्वाऽऽकाशे समुद्ररः ।
गगनात्त्वरितो मूर्ध्नि मुद्ररेण व्यताडयत् ॥
हत्वा तमक्षं निःशेषं बलं सर्वं चकार सः ॥
(५।३।८७-८८)
उन्होंने स्तम्भसे मेघनादपर प्रहार किया था-
ततोऽतिहर्षाद्धनुमान् स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान् ॥
जघान सारथिं साचं रथं चाचूर्णयत् क्षणात् ।
(अ० रा० ५।३।९६-९७ )
हनुमानजीने राम-रावण युद्धमें तोमरसे प्रहार किया था। महाकवि केशवदासका कथन है-
सूरज मुसल, नील पट्टिस परिघ, नल- जामवंत असि, हनू तोमर प्रहारे हैं।
(रामचन्द्रिका १९४६)
हनुमानजीने परिघसे जम्बुमालीका नाश किया था-
ततः परिघमादाय घोरघोषभ्रमं युधि अपातयत् कपिवरः स्यन्दनाज्जम्बुमालिनम् ॥
(रामायणमञ्जरी, सुन्दर० ४३७)
महर्षि वाल्मीकिका कथन है कि प्रमदावनका | विध्वंस करनेपर राक्षसोंसे घिरे हनुमानजीने फाटकपर रखे हुए परिघको उठाकर उसीसे उन्हें मार डाला-
स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान् ।
(वा० रा० ५।४२।४० )
‘जिस तरह पूर्वकाल में इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के तीनों मस्तकों को वज्र से काट डाला था, उसी तरह कुपित हुए पवनपुत्र हनुमानजीने त्रिशिरा ( रावण – पुत्र) – के किरीट- कुण्डल मण्डित तीनों मस्तकों को तीखी तलवार से काट दिया’-
स तस्य शीर्षाण्यसिना शितेन किरीटजुष्टानि सकुण्डलानि।
क्रुद्धः प्रचिच्छेद सुतोऽनिलस्य त्वष्टुः सुतस्येव शिरांसि शक्रः॥
( वा० रा० ६ । ७० । ४७)
वज्राङ्ग हनुमान जी अपने-आप में ही एक अखण्ड सम्पूर्ण आयुध हैं। अपने किसी भी अङ्ग से जब वे किसी आयुध को स्पर्श या ग्रहण करते हैं, तब उसमें दिव्यता और शक्ति का विशेषरूप से संचार हो जाता है।
सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम
प्रिया प्रीतम सरकार की जय
आनंद भाष्यकार श्रीमद जगद्गुरु रामानंदाचार्य भगवान की जय