गांव की रूपवती किशोरी ओखली में धान कूट रही है और काछा पटवारी उसके सामने खिड़की में बैठा उसकी आकर्षक देहभंगिमा को ललचाई नजरों से देख रहा है। जमीन मापने के लिए वह जरीब फेंकता हुआ अर्थभरी खांसी का स्वर करता है। भांदल धार के इस गांव की गोरी पर उसकी बुरी नजर है। वह गरीब है इसलिए उस पर हाथ मारना उसके लिए मुश्किल नहीं है। वाह रे पटवारी! तुम कभी सुधरोगे भी? जरा सोचो, तुम्हारी यह दागदार छवि पटवारियों के पूरे समुदाय को कलंकित कर रही है। गरीब बेबस महिलाओं की इज्जत लूटने और इनकी बसी-बसाई गृहस्थियों को उजाड़ने का यह सिलसिला कभी थमेगा भी? A heart touching story of moral values and ethics.
चम्बा के इस दूरस्थ गांव में स्थानान्तरित होकर आया पटवारी दिनेश शर्मा सन्ध्या समय जुटने वाली नाच-गाने की महफिलों में अकसर यह लोकगीत सुनता है। यहां के बच्चे-बूढ़े सब नाचते हैं। वक्तकटी और मनोरंजन का यही तो एक साधन है। आयोजक स्कूल मास्टरों को तो आत्मीयता के कारण बुलाते हैं, मगर पटवारी जी को उनके हाकिमाना तेवरों से भय खाने के कारण अपने में शामिल करते हैं और बात-बात में उन्हें हाकिम जी-हाकिम जी कहकर संबोधित करते हैं।
पर दिनेश शर्मा पटवारी को उनका यह रवैया कतई पसंद नहीं। वह कहते हैं, मैं सरकारी कर्मचारी हूं। लोगों के काम करने के लिए सरकार ने मुझे यहां भेजा है। मुझे वेतन भी मिलता है और निर्धारित भत्ते भी। इसमें हुकमरानी वाली क्या बात है? वह लोगों को बड़े प्यार से बिठा कर समझाते हैं-देखो भाई लोगो मैं हूं एक साधारण पटवारी, तुम्हारी तरह एक सीधा-सादा इनसान। मैं कोई हीरे-जवाहरात से जड़ा हुआ बुत नहीं हूं कि आप मेरी पूजा करें। मैं सिर्फ एक पटवारी हूं। काम करने के लिए आया हूं। काम बताइये। मेरे बस में होगा तो देर नहीं लगाउंगा, फौरन कर दूंगा। नहीं कर पाऊंगा तो मना कर दूंगा।
यहां न तो अभी पटवारखाना बना है और न पटवारी आवास ही, अतः पटवारी जी गांव के बड़े दुकानदार मेहरो शाह की दुकान के ऊपर बने कच्चे फर्श और सलेट की छाजन वाले कमरे में रहते हैं। स्कूल के एक लड़के ने उन्हें मिट्टी का चूल्हा बना दिया है और लाला जी ने ईंधन का प्रबंध कर दिया है। पटवारी जी को कई घरों से खाने के लिए बुलावा आता है पर वह अपना खाना स्वयं बनाते हैं।
नौकरी पर जब लगे थे तो घौर नैतिकवादी पिता जी ने उन्हें कई तरह की ताकीद करके भेजा था। वह पूजा में आलस नहीं करेंगे। अपना खाना खुद बनाएंगे। जवान लड़कियों वाले घर में नहीं रहेंगे और गांव की महिलाओं को माताओं और बहनों की तरह मानेंगे। पटवारी जी ने इन्हीं कारणों से इस अकेले कमरे में डेरा रखा है। इसके फर्श में ही नीचे जाने का दरवाजा है जिसे स्थानीय भाषा में चोभू कहते हैं। रात के समय पटवारी जी फट्टा डालकर चोभू बंद कर लेते हैं ताकि कोई ऊपर न चढ़ आए। दिन के समय वह चोभू को ताला लगा लकड़ी की सीढ़ियों से उतर अपने काम पर निकल जाते हैं।
एक दिन क्या होता है कि एक भरे-पूरे जिस्म वाली नवयुवती के साथ दो-चार होने की नौबत आ जाती है। सन्ध्या का झुटपुटा कुछ-कुछ गहरा गया है। गांव की हलचल मंद पड़ गई है। बिजली-सड़क विहीन यह समूचा अंचल गहरे अंधकार में डूबने के कगार पर है। युवती चोभू का तख्ता हटा ऊपर चढ़ आती है। दिनेश शर्मा भौंचक्के से रह जाते हैं। युवती के हाथ में थाली है जिसमें एक दिया जल रहा है जिसका मद्धम प्रकाश उसके प्रसाधित चेहरे को आकर्षण प्रदान कर रहा है। थाली में सूखा नारियल, थोड़ी-सी दाख और रोली रखी है।
“पटवारी जी, मैं आपसे मित्री करने आई हूं।” युवती ऐसे कहती है जैसे बरसों से परिचित हो। दिनेश शर्मा एक जवान जिस्म को अपने बेहद निकट पा कुछ हकलाते हुए से पूछते हैं, मित्री? वो क्या होती है? आप नहीं जानते-सवाल पूछते हुए स्वयं जवाब दे बैठी-पटवारी जी? पखले हैं, जानेंगे भी कैसे। युवती के ऐसा कहने पर पटवारी जी कुछ हिम्मत जुटा कर कहते हैं-ओ हां, समझा मित्री मतलब मित्र होना। हां समझ गये न? चारपाई के पायताने बैठी हुए युवती कुछ आगे सरकती हुई कहती है तो उसकी दबंगता देख वह कुछ सकपकाते हैं।
सोचते हैं फंदा तो नहीं डाला जा रहा मुझ पर, और सहसा पिता जी का रौबीला चेहरा उनके सामने से गुजर जाता है। उनके कहे शब्द कोड़ों की तरह आ टकराते हैं उनके वजूद के साथ। वह अपने में हिम्मत जुटाते हुए कहते हैं-मैं तो भई सबका मित्र हूं। आप लोगों की सेवा के लिए आया हूं, सेवा बताइये। युवती उनके मुंह की ओर ताकती रहती है। पटवारी जी को वह कुछ निराश हुई-सी लगती है, मानों उसका एकाधिकार छिन रहा हो।
अतः वह थाली में पांच का नोट रख अपनी मध्यम उंगली से माथे पर रोली का टीका लगा हाथ जोड़कर कहते हैं-आप मित्री करने आई हैं, ठीक है, इसमें कोई बुरी बात नहीं। पर मैंने कहा न कि मैं सबका मित्र हूं और इन सबमें आप भी आ जाती हैं। आप अपना कोई काम लाएंगी तो जरूर करूंगा। आप मित्री करने न आतीं तो भी मैं करता ही।
पटवारी यानी दिनेश शर्मा उच्च शिक्षा प्राप्त युवक है। पिता जी ने बड़े अरमानों के साथ उन्हें पढ़ाया है पर उन्हें लगा है कि उनकी चाहत पूरी नहीं हुई। पड़ोसियों के बच्चे ऊंची नौकरियों पर चले गये हैं। कोई इलेक्ट्रिकल इंजीनियर लगा है तो कोई साफ्टवेयर प्रोफेशनल, कोई होटल मैनेजमेंट में गया है तो कोई कस्टम और कराधान में कमाई कूटने लगा है। दिनेश ने गणित में एमएससी की है और उसके नसीब में आई है पटवारगिरी। पिता जी ने मन मारकर ही हामी भरी है। सोचा है फिलहाल यही सही। पेट पालने का जुगाड़ तो बना। कोई बात नहीं। ऊंची शिक्षा पाए हुए है, हमेशा पटवारी ही तो नहीं रहेगा। ज्यादा नहीं तो तहसीलदार तो बन ही जाएगा कुछ साल बाद।
बड़ी नौकरी न मिलने की बात दिनेश को भी कम नहीं कचोटती। हीनता का भाव भी कभी-कभी उसे पस्त कर जाता है, पर एक विचारशील नौजवान होने के नाते वह एकदम हताश होकर नहीं बैठ जाता। विद्यार्थी जीवन के उसके साथी खूब कमाने लगे हैं। नौकरियां लगते ही सबने गाड़ियां ले ली हैं और फ्लैट बुक करा लिए हैं। पर दिनेश पता नहीं क्या किस्मत लेकर आया है, पहाड़ की कन्दराओं में पड़ा है…
गांव के बुजुर्गवार पग्गड़धारी सन्तराम एक दिन दिनेश शर्मा को टियाले पर कुर्सी लगाए देखते हैं तो उसके पास आ बैठते हैं और बुजुर्गाना लहजे से कहते हैं-जरा संभल कर रहना हाकिम जी। आप नए-नए आए हैं न, इसलिए कुछ भी जानते नहीं। मैं समझा नहीं पंडित जी, जरा खोल कर बताएं बात क्या है? दिनेश के ऐसा पूछने पर वह कहते हैं, बात कुछ नहीं। कहना सिर्फ यही है कि लोग बड़े खबीस हैं। वो रसीलू लुहार है न, वही जो सुबह-सुबह आप के लिए दूध लाता है। हां-हां आता है। कहा है कुछ उसने? दिनेश शर्मा के कुछ सशंक होकर पूछने पर वह कहते हैं-कह रहा था यह पटवारी जी भी अच्छे खुराकी लगते हैं। बहुत बुरा लगा मुझे। आप जैसे जती-सती आदमी को कोई ऐसा कहे, मुझे तो कम से कम अच्छा नहीं लगता। खुराकी? कुछ समझा नहीं पंडित जी, जरा साफ-साफ बताएं न। मुझे खुराकी होने की क्या जरूरत है। पहलवानी तो करता नहीं मैं।
दिनेश शर्मा के ऐसा पूछने पर पंडित जी मुस्कुरा कर कहते हैं-आप भी बड़े भोले हैं पटवारी जी। पता नहीं कब समझ पाएंगे इस गांव की भाषा। पटवारी जी सोच में पड़ जाते हैं और फिर सहसा बड़ी बेबाकी से कहते हैं ओ हां समझा कूट भाषा है यह। इस पर पंडित जी उनके खैरखाह बनते हुए से कहते हैं-मैं आपको यही सलाह दूंगा पटवारी जी कि आप इस अकेले डेरे पर न रहें। तो फिर रहूं कहां पंडित जी, पटवारी जी के कुछ चिन्तित हो ऐसा पूछने पर वह कहते हैं-आप मेरे यहां रहें। आपको एक कमरा दे देंगे। भोजन बनाने की तकलीफ भी नहीं करनी पड़ेगी आपको।
दिनेश शर्मा सोच में पड़ जाते हैं। कुछ भी जवाब देते नहीं बनता उनसे। दो-टूक जवाब देना भी उन्हें ठीक नहीं लगता। नौजवान लड़कियों वाले घर में रहने का उन्हें सख्त निषेध है। और पंडित जी का घर लड़कियों वाला है। एक दिन वहां उन्हें खाने के लिए बुलाया गया था तभी उन्होंने वहां एक नौजवान लड़की देखी थी जो किसी न किसी बहाने से बार-बार उनके पास से होकर गुजरती थी।
इधर जमीनों के झगड़े-टंटे भी कम नहीं थे। पहले के पटवारियों ने कई काम लटका रखे थे जो अब दिनेश शर्मा को बड़ी तसल्ली और सहज भाव से करने थे। गांव के मास्टर लब्ध राम और कर्मचन्द लुहार के बीच जमीन के एक टुकड़े पर बड़ी खींचतान रहती थी। ऊंची-ऊंची कहासुनी भी हो जाती थी उनके बीच।
आषाढ़ के महीने में जब वर्षा की पहली बौछारें पड़तीं, जमीन भाप छोड़ती और फिर तेज बौछारों के बाद बत्तर (जमीन का बिजाई के लिए तैयार होना) हो जाता और मक्की की बुआई के लिए हल चलने शुरू होते तो झगड़ा शुरू हो जाता। खेत की सीमा आगे बढ़ा लेने के एक-दूसरे पर इल्जाम लगते। कोई भी पक्ष दूसरे के दावे को स्वीकार न करता और इस तरह आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते और आगे-पीछे की सब रंजिशों के पिटारे खुलने लगते।
बात पटवारी जी तक पहुंचती और जमीनों के झगड़ों के बीच बच-बचकर चलने वाले दिनेश शर्मा हिम्मत जुटाते। मास्टर लब्ध राम और कर्मचन्द दोनों को पेश होने का संदेश भेजते। उनकी दयानतदारी और नेकनीयती का सब लोहा मानते हैं। इसलिए दोनों पक्षों के लोग निश्चित समय पर हाजिर हो जाते हैं। देखो मास्टर जी और कर्मचन्द जी पटवारी दिनेश शर्मा शुरू करते हैं, आप जानते ही हैं कि जमीनों के झगड़े कैसे तूल पकड़ लेते हैं और इनमें फौजदारी तक की नौबत आ जाती है और फिर हम लोग पीढ़ियों तक वकीलों के हाथों लुटते रहते हैं। झगड़ा शुरू होता है मामूली-सी बात से। जमीन के एक-दो हाथ आगे-पीछे होने की बात होती है। अगर अक्लमंदी से काम लिया जाए तो बात पांच मिनट में खत्म हो सकती है।
सही कहा आपने हाकिम जी, सब समवेत स्वर में बोलते हैं, मामला निपटाइये आप। मास्टर लब्धराम और कर्मचन्द आत्मीयतापूर्वक पटवारी जी की बात मान जाते हैं। झगड़े की तो कोई खास वजह ही नहीं होती पटवारी जी, यह तो हमारा बेवजह का अहंकार होता है जो हमें बेचैन किए रहता है, और तकलीफ कौन उठाता है? हम ही न? मास्टर जी के ऐसा कहने पर कर्मचन्द सिर हिला कर समर्थन करता है उनका। उसकी उग्रता एकदम गायब हो जाती है और वह बड़े समझदारी वाले लहजे में कहता है-मामला निपटा ही दीजिए हाकिम जी। यह रोज की खिच-खिच मिट ही जाए तो अच्छा। मास्टर जी को बार-बार छुट्टी लेकर आना पड़ता है और मेरे काम में भी खासा विघ्न पड़ता है। किसान लोग अलग से परेशान होते हैं।
देखिए मास्टर जी और कर्मचन्द जी विजेता की मुद्रा में आ पटवारी जी आत्मविश्वासपूर्वक कहते हैं, यदि तो आप मेरी निष्पक्षता पर यकीन करते हैं तो मैं फैसला कर देता हूं। प्रधान जी भी देख रहे हैं और गांव के चार भलेमानस भी मौजूद हैं। मुझे अगर आप सब इजाजत दें और मेरी बात मानें तो कुछ कहूं? हां-हां, क्यों नहीं पटवारी जी। बात मानेंगे क्यों नहीं। आपको हम क्या जानते नहीं। न काहू से दोस्ती न काहू से वैर। आपके इस चलन को यहां कौन नहीं जानता?
प्रधान जी के बड़ी बेबाकी से ऐसा कहने पर दिनेश शर्मा पटवारी जी का हौसला बढ़ता है और कटे-फटे और एक-दूसरे के बीच धंसे किनारों के ऐन बीच खड़े हो कहते हैं यह रस्सी पकड़िये प्रधान जी उधर से। इधर से मैं पकड़ रहा हूं। देखिए यह सीधी लाइन बन गई बीचो-बीच। खेतों के इस ओर के कटे-फटे भाग अभी सीधे हो जाते हैं। देखिए बात सीधी- सी है। इस ओर मास्टर जी तथा उस तरफ कर्मचन्द। निशान लगा रहा हूं सीधी लाइन पर। लट्ठे पर मैं निशानदेही ठीक कर रहा हूं। किसी को कोई एतराज?
नहीं हाकिम जी एतराज और आपके न्याय पर? यह कैसे हो सकता है?
न्याय करना तो कोई आपसे सीखे।
हाकिम हो तो आप जैसा।
उपस्थित ग्रामीण तरह-तरह से पटवारी जी की तारीफ करते हैं। मास्टर लब्धराम राहत की सांस लेते कहते हैं-हाकिम जी जमाबन्दी दुरुस्त करना नहीं भूलना। वाह, पटवारी जी वाह। आपने तो रामराज वाली मिसाल पेश कर दी है आज-पं. संतराम प्रशंसात्मक लहजे में बोलते हैं। और मेहरो शाह गद्गतद स्वर में कहते हैं-आप तो देवता स्वरूप हैं पटवारी जी। मैं हैरान हूं कि आप जैसा जती-सती आदमी इस बदनाम महकमे में कैसे आ गया।
सभा बरखास्त होती है तो एक काईंयां जैसा आदमी पटवारी जी को थोड़ा एक तरफ ले जाकर कहता है शिकार का शौक रखते हैं हाकिम जी? यह बात उसने बहुत धीरे से इस ढंग से कही कि जैसे यह कोई ऐसी गुप्त सूचना हो जिसे कोई दूसरा न सुन ले। शिकार और मैं? क्या बात कर दी तुमने रांझू? कर्मकाण्डी ब्राह्ममण का बेटा और शिकार? होश ठिकाने हैं तुम्हारे? जब मैं मांस खाता ही नहीं तो शिकार क्यों करूंगा? दिनेश शर्मा के तेवर दिखाने पर रांझू हाथ जोड़कर कहता है-नहीं पटवारी जी आपको कौन कहता है शिकार करने को। शिकार आपके डेरे पर पहुंच जाएगा। बंदा है किसलिए। हाकिमों की खिदमत करना बंदे का फर्ज है। मैंने कहा न रांझू मैं शाकाहारी हूं। सुना नहीं तुमने?
दिनेश शर्मा की डांट सुनकर भी रांझू हार नहीं मानता और कहता है-कमाल है। हाकिम हुक्काम शिकार में शौक न रखें, यकीन नहीं होता। पहले वाले पटवारी तो शिकार खाते भी थे और शिकार करने में भी माहिर थे। वो जब भी आते काम-काज शुरू करने से पहले शिकार की मांग करते। खैर आप से क्या कहूं, जती-सती आदमी ठहरे आप। परहेजदार तो होंगे ही।
बात खत्म हुई। रांझू चला जाता है। दिनेश शर्मा मन ही मन कहते हैं- कुछ खोटी बुद्धि वाले तो बेशक यहां हैं पर बुनियादी तौर पर लोग स्नेही और सद्भाव वाले हैं। हमारा व्यवहार ठीक होगा तो ये लोग बिल्कुल बिगड़ेंगे नहीं। उस दिन पारले गांव से एक फौजी भाई आए थे। पता नहीं कब से टक्करें मार रहे थे हाकिमों के द्वार पर। कोई सुनता ही नहीं था। बात ही नहीं करता था। कहते थे जमाबन्दी की नकल लेनी है। पटवारी जी के चक्कर काटते-काटते टांगें टूट गयी हैं। मिलते ही नहीं। कभी मौके पर होते हैं। कभी किसी इन्तकाल के सिलसिले में तहसीलदार के साथ ड्यूटी पर होते हैं, कभी मतदाता सूचियों की जांच में जुटे बताए जाते हैं तो कभी बाढ़ के नुकसान का जायजा लेने कहीं गए बताए जाते हैं। डेरे पर ताला ही मिलता है।
फौजी भाई का कहना था कि अधिकतर बातें सरासर झूठ होती थीं। मैं जानता हूं हाकिम जी, माफ करना, दुःखी होकर ही कह रहा हूं। सीधे ढंग से कोई काम कर दें तो हम बदखोई क्यों करें। मैंने शुक्र िकया है िक वह बदल गए, अगर आप मेरा काम कर दें तो बड़ी मेहरबानी होगी।
फौजी भाई का दुखड़ा सुनकर दिनेश शर्मा को दुःख तो हुआ पर शर्म भी कम नहीं आई। अतः उन्होंने उसे आदर से बिठाया और सहानुभूति भरे स्वर में कहा- यह मेहरबानी वाली बात क्या कह दी आपने। पांच मिनट का काम है। अभी किए देता हूं। और भाई जी आपने मुझे हाकिम जी नहीं कहना। मैं सिर्फ एक कर्मचारी हूं, हाकिम नहीं हूं। और दिनेश शर्मा ने पन्द्रह-बीस मिनट में नकल जमाबंदी बनाकर उनके सुपुर्द कर दी और मन ही मन कहा, कितना मजा आता है दूसरों का काम कर देने से। पता नहीं हमारे कर्मचारी काम से कतराते क्यों हैं।
दूसरों का काम समय पर निपटा देने से दिनेश शर्मा को बड़ी संतुष्टि मिलती है और उसका खून बढ़ता है। कहते है खून बढ़ाने वाली इस रसायन से दूर क्यों भागते हैं लोग-बाग। मैं खुशकिस्मत हूं जो मुझे दूसरों के काम आने का सुअवसर मिला है। अभी कुछ दिन पहले उन्होंने एक प्लाट मालिक को उसके एक झगड़ालू पड़ोसी से रास्ता दिलवाया है। इसे उनका एक बड़ा कारनामा माना गया है और उनकी सर्वत्र वाहवाही हुई है।
लोग जमाबंदी की नकल लेने, ततीमा बनवाने, खसरा नंबर लेने या जमीन के इंतकाल की गर्ज से उनके पास आते हैं तो अपने साथ घी का डिब्बा, बढ़िया बासमती, मक्की का आटा, लोटा भर शहद या अपने खेत की सब्जी भेंट के तौर पर ले आते हैं। वह इसे स्वीकार तो करते हैं पर बिना कीमत चुकाए ग्रहण नहीं करते। वह लोगों से बार-बार कहते हैं कि सरकार मुझे वेतन देती है और जो मिलता है वही मेरे लिए बहुत होता है।
पटवारी जी की आस-पास के सब गांवों में चर्चा होती है। उनके सहानुभूति वाले रवैये और खुशी-खुशी काम निपटा देने की प्रवृत्ति ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया है पर ऊपर वाले हाकिम-हुक्काम और हमपेशा सहयोगी उसी अनुपात में उनसे नाराज रहने लगे हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि ऐसा क्यों होता है कि काम करना भी कई बार हमारे यहां दोष बन जाता है।
और एक दिन उन्हें उनका स्थानान्तरण आदेश थमा दिया जाता है। और वह जाने की तैयारी शुरू कर देते हैं। गांव में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल जाती है और सूरज ढलते ही उनके डेरे पर इलाके के बड़े जमींदार, स्थानीय स्कूल मास्टर, ग्राम पंचायतों के पदाधिकारी, दुकानदार और अन्य बहुत से प्रधान पुरुष इकट्ठास होना शुरू हो जाते हैं। दिनेश शर्मा हाथ जोड़कर सब का धन्यवाद करते हैं और अपने को खुशी-खुशी विदा करने का अनुरोध करते हैं, जिस पर चारों तरफ नहीं-नहीं की आवाज उठती हैं।
जाएंगे कैसे? हम जाने ही नहीं देंगे। एक स्वर।
हमने तो जनाब शुक्र मनाया था कि एक नेक आदमी हमें हाकिम के रूप में मिला है और आपने रट लगा ली है जाने की। पंचायत प्रधान गंभीर मुद्रा बनाकर कहते हैं।
हम ऐसे नहीं, तहसीलदार बनाकर भेजेंगे आपको। एक सेवानिवृत्त सूबेदार जब ऐसा कहते हैं तो दिनेश शर्मा के चेहरे पर एक रहस्यमयी मधुर मुस्कान फैलने लगती है पर वह बोलते कुछ नहीं।
अभी तो जनाब यहीं आराम से बैठे रहिए। तहसीलदार बन जाएंगे तो गले में हार पहनाकर खुशी-खुशी विदा करेंगे। पंचायत समिति के एक रौबीले पदाधिकारी जब अधिकारपूर्वक ऐसा कहते हैं तो दिनेश शर्मा जेब से एक कागज निकाल मुस्कुरा कर कहते हैं-तहसीलदार बनकर ही जा रहा हूं चैधरी साहिब। नायब तहसीलदार के तौर पर मेरी सिलेक्शन हो गई है। अब तो जाने देंगे न?
एक खुशनुमा सन्नाटा छा जाता है चारों ओर।
-डॉ. सत्यपाल शर्मा-