पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु के रूप में प्रकृति सर्वशक्तिमान का साक्षात स्वरूप है। ईश्वर का जीता-जागता अंश होने के कारण प्रकृति के प्रत्येक घटक के प्रति मनुष्य को सदैव आदर भाव रखना चाहिए। इस युग में इस भाव की काफी उपेक्षा हुई है। इसीलिए मनुष्य सहित सभी जीव-जंतुओं को प्राकृतिक आपदाएं झेलनी पड़ी हैं।
इस कारण जीवन में उथल-पुथल मची हुई है। जीवन की सहज गतिविधियां कठिन हो गई हैं। आनंद और मधुरता का प्राकृतिक उपहार मनुष्य की काया, मन और आत्मा में उत्पन्न विकृतियों के चलते कष्टों से घिरा हुआ है।
ऐसे में मनुष्य को धीरतापूर्वक और आत्मविश्वास के साथ प्रकृति को आदर देते हुए उससे जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन में असाधारण विचारों की संगति के लिए प्रकृति के उपक्रमों, प्रतीकों और गतिविधियों पर ध्यान अवश्य लगाना चाहिए। यह अभ्यास मनुष्य का नियमित अभ्यास बनना चाहिए।
कभी ठंडी हवा को चेतना के साथ महसूस करें। हवा की मुलायम छुअन को अपने शरीर पर महसूस करें, शरीर के जरिए दिल में और दिल से आत्मा में महसूस करें। इससे जो कुछ भी महसूस होगा, वही जीवन का परम उद्देश्य, उपलब्धि और मोक्ष-मुक्ति की तरह प्रतीत होगा।
प्रकृति के शीतल-मृदुल सौंदर्य उपक्रमों को अनुभव और आत्मसात करने की प्रक्रिया में मनुष्य के अंदर जो आध्यात्मिक क्रांति होती है, वास्तव में वही परमानंद, परमात्मा और मोक्ष पाने की प्रामाणिक विधि होती है।
अगर मनुष्य की यादों में बार-बार सुनाई देने के लिए सुमधुर प्राकृतिक गतियों के अतिरिक्त कुछ भी न हो, तो वह निश्चित रूप से मोक्ष और मुक्ति के अदृश्य बिंदुओं में बदल जाएगा। आत्मा को चिरशांति देने के लिए यही प्राकृतिक उपाय दवा का काम करते हैं। इस घटना में प्रवृत्त होने के लिए एक मनुष्य को अपने जैसे किसी दूसरे मनुष्य की कोई भावनात्मक मदद नहीं चाहिए।
यह प्रकृति में उपलब्ध सम्मोहन आनंद को स्वयं की चेतनशील इंद्रियों के माध्यम से ग्रहण करने की अति सहज प्रक्रिया है। प्रकृति के सान्निध्य में मनुष्य ऐसे ही कर्मों के माध्यम से आध्यात्मिक प्रतिनिधि बनता है।
मौन व शांत-प्रशांत समय पर हृदय का ध्यान लगाना, व्यतीत होती घड़ी-घड़ी पर चेतना को स्थिर करना और सम्मुख सामने मौजूद दिन के उजाले में क्षणभंगुर जीवन के अस्तित्व को अनुभव करना जीवन की विराट आध्यात्मिक क्रांति है।
यही सत्य है और इसी की जय होती है। इस सत्य के साक्षात्कार से मनुष्य सामान्य जीवनचर्या की अविवेकी दृष्टि से ऊंचा उठकर अपनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि की रचना करता है। यह जीवन-भावना सामान्य जीवन को अहंकार से मुक्त होकर देखने की प्रेरणा देती है।
इसी आतंरिक अवस्था में मनुष्य खुद और परिवेश के साधारण जीवन को भोगी, उपभोगी, लोभी, प्रतिस्पर्द्धी, अहंकारी इत्यादि दुर्गुणों के साथ देखने-भोगने की वृत्ति से मुक्त होता है। उसके अंदर इस वृत्ति के स्थान पर एक नवीन आत्मदृष्टि पैदा होती है, जिसमें वह संपूर्ण संसार को दूर आकाशा पर स्थिर एक निर्लिप्त साक्षी के रूप में देखता है।
फलस्वरूप वह मृत्युलोक में प्रचलित लौकिक विचारों के विरोधाभासों की पीड़ा से भी पूरी तरह मुक्त हो जाएगा।