विश्व के अग्रणी संतों में ख्याति प्राप्त महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी महेशानंद गिरी जी महाराज ना सिर्फ धर्माधिकारी, मुखर प्रावाचक, अखिल भारतीय सनातन परिषद एवं पंचायती अखाड़ा श्री निरंजनी के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता, नव चंडी सेवा आश्रम सहस्त्रधारा देहरादून उत्तराखंड देवभूमि के अधिपति और सत्य सनातन के ज्योति स्तंभ के रूप में विख्यात हैं
आँख और पेट की बीमारी
सभी मनुष्यों में दो तरह की बीमारी है–आँख की बीमारी और पेट की बीमारी। आँख की बीमारी क्या है ?–
इस दुनिया में एक अँधेरा, सबकी आँख में जो छाया।
जिसके कारण सूझ पड़े नहीं, कौन हूँ मैं कहाँ से आया।
कौन दिशा को जाना मुझको, किसको देख मैं ललचाया।
कौन है मालिक इस दुनियाका, किसने रची है यह माया।
और पेट की बीमारी क्या है ?–
इस दुनिया में एक कूप है, जिसका पार कोई नहीं पावै।
जिसको भरने कारण प्राणी, देश दिगन्तर को जावै।
दीन भये पर घर में जाकर, सेवा कर-कर मर जावै।
भजन ध्यान चिन्तन ईश्वर का, जिसके कारण बिसरावै।

इस विषय में एक कहानी है। एक वैद्य थे। उनके पास एक रोगी पहुँचा। उसने वैद्य से कहा कि मेरी आँख में बड़ी पीड़ा हो रही है और पेट में भी पीड़ा हो रही है। वैद्य ने उसको लिटाकर उसका पेट देखा और आँख देखी। इतने में एक दूसरा रोगी आया। उसने भी कहा कि मेरी आँख में और पेट में बड़ी पीड़ा हो रही है। वैद्य ने विचार किया कि यह कैसी हवा चली है, सबको एक ही बीमारी ! वैद्य ने दोनों रोगियों के लिये दवा लिख दी और कहा कि कम्पाउण्डर से दवा ले लो।
कम्पाउण्डर ने दोनों को दवा की दो-दो पुड़िया बनाकर दे दी, एक आँख के लिये और एक पेट के लिये। वैद्य ने समझा दिया कि देखो, यह आँख में डालने की पुड़िया है। इसको रात में सोते समय आँख में डालना और बार-बार पलक झपकाना, जिससे आँख से गरम-परम पानी निकल जायगा। फिर सो जाना। इससे आँख ठीक हो जायगी। यह दूसरी पुड़िया पेट के लिये है। इसको एक पाव जल में डालकर आग पर रख देना। जब जल एक छटाक रह जाय, तब वह काढ़ा छानकर पी लेना। इससे पेट ठीक हो जायगा और दस्त लगने से आँख में भी लाभ होगा।

दोनों रोगी दवा लेकर चले गये। घर जाकर एक रोगी ने तो ठीक वैसा ही किया, जैसा वैद्य ने कहा था। आँख की दवा आँख में डाल दी और पेट की दवा पेट में। परन्तु दूसरे रोगी ने पुड़िया उलट दी! उसने पेट की दवा आँख में डाल दी और आँख की दवा पेट में डाल दी। आँख में थोड़ा कचरा भी पड़ जाय तो पीड़ा होने लगती है, पर उसने पेट का चूर्ण आँख में डाल दिया!
इससे आँख की पीड़ा बढ़ गयी! आँख की दवा ठण्डी होती है, वह पेट में चली गयी तो पेट की पीड़ा भी बढ़ गयी। अब यह वैद्य को गाली देने लगा कि तेरे बाप को मैंने मारा था क्या ? वह तो अपनी मौत मरा था। फिर मेरे से किस दिन का बदला लिया है! दूसरे दिन वह दवाखाना खुलने से पहले ही वहाँ जा बैठा। वैद्यजी आये और दवाखाना खोलकर उससे पूछा–‘कहो, कैसे हो ?’
वह बोला–‘कैसे क्या हूँ ?’
वैद्य ने कहा–‘अरे, क्या हुआ ?’
वह बोला–‘हुआ क्या, जो तुमने किया, वही हुआ !’
वैद्य ने कहा–‘हमने क्या किया ?’
वह बोला–‘ऐसी दवा दे दी कि मेरी आँख की पीड़ा भी बढ़ गयी ! साफ कह देते कि मैं दवा नहीं देता ! मेरे पास ज्यादा रुपया तो है नहीं, इसलिये उलटी दवा दे दी।’

वैद्य ने कहा–‘भाई, पीड़ा कैसे बढ़ गयी ? किसी आदमी को दवा जल्दी असर करती है, किसी को नहीं करती, यह तो अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार होता है, पर पीड़ा बढ़ने का तो कोई कारण ही नहीं है!’
वह बोला–‘मैं तो भुक्तभोगी हूँ, मेरी पीड़ा तो बढ़ गयी ! इतने में दूसरा रोगी आया। वैद्य ने उससे पूछा–‘कहो, तुम कैसे हो ? वह बोला–‘महाराज, बहुत आराम है। एक-दो दस्त लगे, पेट भी ठीक है और आँखें भी ठीक हैं।’
यह सुनते ही पहला रोगी बोला–‘देखो, यह पैसे वाला आदमी है, इसको तो बढ़िया दवा दे दी, मेरे को घटिया दे दी !’
वैद्य ने कहा–‘घटिया कैसे दे दी ? जो दवा उसको दी, वही तुमको भी दी। तुम्हारी पुड़िया कैसी थी ? रोगी ने जेब से चूर्ण की पुड़िया निकालकर वैद्य के सामने पटक दी और बोला–‘यह है वह पुड़िया।’
वैद्य ने कहा–‘दूसरी पुड़िया ?’
वह बोला–‘दूसरी तो मैं काढ़ा बनाकर पी गया ! यह पुड़िया आँख में डाली थी, दवा ज्यादा थी, इसलिये बच गयी।’
वैद्य ने कहा–‘इसको निकालो यहाँ से! उलटी दवा तो यह खुद लेता है और कहता है कि तुमने मेरी पीड़ा बढ़ा दी !’
इसी तरह हम सब लोग रोगी हैं। हमारी आँख की बीमारी क्या है ? वास्तविक बात सूझती नहीं है। खुद तो जानते नहीं, दूसरे की मानते नहीं। जो अधूरा जानते हैं, उसी को पूरा मान लेते हैं कि बस, यही ठीक है। पेट की बीमारी क्या है ? पेट कभी भरता ही नहीं! दरिद्र का भी पेट नहीं भरता और लखपति-करोड़पति का भी पेट नहीं भरता। कितना ही मिल जाय तो भी कहते हैं कि क्या करें, काम नहीं चलता।

इन दोनों रोगों के लिये भगवान् ने हमें दो पुड़िया दी हैं–‘प्रारब्ध और पुरुषार्थ। आँख की बीमारी के लिये ‘पुरुषार्थ’ है और पेट की बीमारी के लिये ‘प्रारब्ध’ है। पुरुषार्थ करेंगे, सत्संग-स्वाध्याय, विवेक-विचार करेंगे तो आँख का रोग दूर होगा और अपने कर्तव्य का पालन करते हुए प्रारब्ध पर विश्वास करेंगे कि जो हमारे भाग्य में लिखा है, वही मिलेगा तो पेट का रोग दूर होगा।
प्रारब्ध शोक-चिन्ता मिटाने के लिये है, आलसी-अकर्मण्य बनाने के लिये नहीं। जैसे, बेटा बीमार हो तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसका भलीभाँति इलाज करते-करते अगर वह मर जाय तो मन में इस बात को लेकर चिन्ता, शोक, दुःख नहीं होगा कि हमने अपनी तरफ से उसके इलाज में कमी रखी।

बेटा तो प्रारब्ध के अनुसार ही मरेगा, पर अपने पुरुषार्थ में कमी होगी तो चिन्ता, शोक, दुःख होगा कि हमने अपने कर्तव्य का ठीक पालन नहीं किया ! इसलिये जो करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहते हैं, उनकी आँख का रोग भी ठीक हो जाता है और पेट का रोग भी। परन्तु जो पुड़िया उलट देते हैं अर्थात् आँख के रोग के लिये प्रारब्ध और पेट के रोग के लिये पुरुषार्थ लगा देते हैं, उनके ये दोनों ही रोग बढ़ जाते हैं। ऐसे लोगों से सत्संग-स्वाध्याय, भजन-ध्यान करने के लिये कहा जाय तो वे कहते हैं कि कैसे करें महाराज ! हमारे तो भाग्य में ही नहीं है।
प्रारब्ध से मिलने वाले धन के लिये रात-दिन पुरुषार्थ में लगे रहते हैं। सारा पुरुषार्थ पेट के लिये लगा देते हैं और आँख के लिये कुछ करते ही नहीं! भगवान् का नाम लेने के लिये कहो तो कहते हैं कि नाम कैसे लें, मुख में सौ मन का ताला लगा है! नाम लेना हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं है ! भगवान् की ऐसी ही मरजी है, हम क्या करें ? हमारा क्या दोष है ?

जिस लगन से धन कमाते हैं, उस लगन से साधन करें तो कल्याण हो जाय ! परन्तु साधन की यह दशा है कि नित्य नियम पूरा हुआ तो सोचते हैं कि आज की आफत तो मिटी ! माला पूरी हुई तो मानो जेल से छूट गये ! दूकान में रोज सौ रुपये कमाते हैं और वे सौ रुपये अगर सुबह ही पैदा हो जायँ तो भी दूकान दिन भर खोलकर बैठे रहेंगे। पर जप पूरा हो जाय तो माला लपेटकर रख देंगे !
यह क्या है ? यह उलटी पुड़िया ले ली। इसलिये जो मिला है, उसमें सन्तोष करें; जो नहीं मिला है, उसकी कामना न करें; अपने कर्तव्य का तत्परता से पालन करें, दूसरों की सेवा करें और भगवान् का भजन-स्मरण, सत्संग करें तो आँख की पीड़ा भी ठीक हो जायगी और पेट की पीड़ा भी।

विश्व के अग्रणी संतों में ख्याति प्राप्त महामंडलेश्वर श्री श्री 1008 स्वामी महेशानंद गिरी जी महाराज ना सिर्फ धर्माधिकारी, मुखर प्रावाचक, अखिल भारतीय सनातन परिषद एवं पंचायती अखाड़ा श्री निरंजनी के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता, नव चंडी सेवा आश्रम सहस्त्रधारा देहरादून उत्तराखंड देवभूमि के अधिपति और सत्य सनातन के ज्योति स्तंभ के रूप में विख्यात हैं साथ ही महाराज जी भारत भर में चलाए जा रहे एक महा अभियान के लिए भी जाने जाते हैं। यह अभियान है भारत भूमि से भयावह चर्म रोग सोरायसिस, सफेद दाग, शरीर पर हुई किसी भी प्रकार की चर्म अनियमितता को जड़ से मिटाना। महाराज जी ने चर्म रोगों से मुक्त भारत का जो दिव्य संकल्प लिया है उसमे नव चंडी आश्रम में उनके साथ वरिष्ठ चिकित्सक एवं वैद्यराज का पूरा दल इन लाइलाज माने जाने वाले रोगों पर शोध करने के साथ साथ दुर्लभ साधनाओं से सिद्ध किए गए गुप्त धनवंतरी मंत्रों से, समय काल दर्शन ऋतुपक्ष के सूत्रों के प्राचीन तंत्र से सभी औषधियों को तैयार और अभिमंत्रित करते हैं। यह महाराज जी की अनंत कृपा ही है जो ऐसी दुर्लभ औषधियां जनमानस में पूर्णतः निशुल्क वितरित की जाती है। सभी शिविर पूर्णतः निशुल्क हैं। विगत अनेक वर्षों में लाखों की संख्या में चर्म रोगी पीड़ित महाराज जी के चिकित्सा कैंप द्वारा बिल्कुल स्वस्थ हो चुके हैं। मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, इत्यादि अन्य कई राज्यों में पूरे मास निश्चित दिन यह शिविर आयोजित किए जाते हैं जिसकी जानकारी आपको आश्रम की वेबसाइट पर उपलब्ध हो जायेगी।